अध्याय 4 : जलवायु

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मानसून

मानसून से अभिप्राय ऐसी जलवायु से है, जिसमें ऋतु के अनुसार पवनों की दिशा में उत्क्रमण हो जाता है। भारत की जलवायु उष्ण मानसूनी है, जो दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशिया में पायी जाती है।

ऋतुओं में मौसम की दशाओं में भिन्नता पायी जाती है। यह भिन्नता मौसम के तत्त्वों ( तापमान, वायुदाब पवनों की दिशा एवं गति, आर्द्रता और वर्षण इत्यादि) में परिवर्तन से आती है।

 

मौसम

मौसम वायुमंडल की क्षणिक अवस्था है, जबकि जलवायु का तात्पर्य अपेक्षाकृत लंबे समय की मौसमी दशाओं के औसत से होता है। मौसम जल्दी-जल्दी बदलता है, जैसे कि एक दिन में या एक सप्ताह में, परंतु जलवायु में बदलाव 50 अथवा इससे भी अधिक वर्षों में आता है।

 

जलवायु

किसी इलाके का किसी एक तरह का औसत मौसम अगर लम्बे समय से बना रहता है तो उसे उस इलाके की जलवायु कहा जाता है.

 

 

मानसून जलवायु में एकरूपता एवं विविधता

भारत की जलवायु में अनेक प्रादेशिक भिन्नताएँ हैं जिन्हें पवनों के प्रतिरूप तापक्रम और वर्षा, ऋतुओं की लय तथा आर्द्रता एवं शुष्कता की मात्रा में भिन्नता के रूप में देखा जा सकता है। इन प्रादेशिक विविधताओं का जलवायु के उपवर्गों के रूप में वर्णन किया जा सकता है।

गर्मियों में पश्चिमी मरुस्थल में तापक्रम कई बार 55° सेल्सियस को स्पर्श कर लेता है। जबकि सर्दियों में लेह के आसपास तापमान 45° सेल्सियस तक गिर जाता है एक स्थान से दूसरे स्थान पर तथा एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र के तापमान में ऋतुवत् अंतर पाया जाता है।

उदाहरणतः केरल और अंडमान द्वीप समूह में दिन और रात के तापमान में मुश्किल से 79 या 8° सेल्सियस का अंतर पाया जाता है, किंतु थार मरुस्थल में, यदि दिन का तापमान 50° सेल्सियस हो जाता है, तो वहाँ रात का तापमान 15° से 20° सेल्सियस के बीच आ पहुँचता है।

 

 

वर्षण की प्रादेशिक विविधता

1) मेघालय की खासी पहाड़ियों में स्थित चेरापूँजी और माँसिनराम में औसत वार्षिक वर्षा 1.080 से.मी. से ज्यादा होता है। इसके विपरीत राजस्थान के जैसलमेर में औसत वार्षिक वर्षा शायद ही 9 से.मी. से अधिक होती हो।

2)उत्तरी-पश्चिमी हिमालय तथा पश्चिमी मरुस्थल में वार्षिक वर्षा 10 से.मी. से भी कम होती है, जबकि उत्तर-पूर्व में स्थित मेघालय में वार्षिक वर्षा 400 से.मी. से भी ज्यादा होती है।

 

 

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

(क) स्थिति तथा उच्चावच संबंधी कारक

(ख) वायुदाब एवं पवन संबंधी कारक।

 

 

 

 1 . स्थिति तथा उच्चावच संबंधी कारक

1) अक्षांश

भारत का उत्तरी भाग शीतोष्ण कटिबंध में और कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित भाग उष्ण कटिबंध में पड़ता है। उष्ण कटिबंध भूमध्य रेखा के अधिक निकट होने के कारण सारा साल ऊँचे तापमान तथा कम दैनिक और वार्षिक तापांतर का अनुभव करता है। कर्क रेखा से उत्तर में स्थित भाग में भूमध्य रेखा से दूर होने के कारण उच्च दैनिक तथा वार्षिक तापांतर के साथ विषम जलवायु पायी जाती है।

 

2) हिमालय पर्वत

ऊँची पर्वत श्रृंखला उपमहाद्वीप को उत्तरी पवनों से अभेद्य सुरक्षा प्रदान करती है। जमा देने वाली ये ठंडी पवनें उत्तरी ध्रुव रेखा के निकट पैदा होती हैं और मध्य तथा पूर्वी एशिया में आर-पार बहती हैं। इसी प्रकार हिमालय पर्वत मानसून पवनों को रोककर उपमहाद्वीप में वर्षा का कारण बनता है।

 

3) जल और स्थल का वितरण 

भारत के दक्षिण में तीन ओर हिंद महासागर व उत्तर की ओर ऊँची व अविच्छिन्न पर्वत श्रेणी है। स्थल की अपेक्षा जल देर से गर्म होता है और देर से ठंडा होता है। जल और स्थल के इस विभेदी तापन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न वायुदाब प्रदेश विकसित हो जाते हैं।

 

4) समुद्र तट से दूरी

भारत के विस्तृत तटीय प्रदेशों में समकारी जलवायु पायी जाती है। भारत के अंदरूनी भाग समुद्र के समकारी प्रभाव से वंचित रह जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में विषम जलवायु पायी जाती है

 

5) समुद्र तल से ऊँचाई

ऊँचाई के साथ तापमान घटता है। विरल वायु के कारण पर्वतीय प्रदेश मैदानों की तुलना में अधिक ठंडे होते हैं। उदाहरणतः आगरा और दार्जिलिंग एक ही अक्षांश पर स्थित हैं किंतु जनवरी में आगरा का तापमान 16° सेल्सियस जबकि दार्जिलिंग में यह 4° सेल्सियस होता है।

 

6) उच्चावच

भारत का भौतिक स्वरूप अथवा उच्चावच तापमान, वायुदाब, पवनों की गति एवं दिशा तथा ढाल की मात्रा और वितरण को प्रभावित करता है।

 

 

2 . वायुदाब एवं पवनों से जुड़े कारक

भारत की स्थानीय जलवायुओं में पायी जाने वाली विविधता को समझने के लिए निम्नलिखित तीन कारकों का अध्ययन करना आवश्यक है ।

 

1) वायुदाब एवं पवनों का धरातल पर वितरण.

(ii) भूमंडलीय मौसम को नियंत्रित करने वाले कारकों एवं विभिन्न वायु संहतियों एवं जेट प्रवाह के अंतर्वाह द्वारा उत्पन्न ऊपरी वायुसंचरण

(iii) शीतकाल में पश्चिमी विक्षोभों तथा दक्षिण-पश्चिमी मानसून काल में उष्ण कटिबंधीय अवदाबों के भारत में अंतर्वहन के कारण उत्पन्न वर्षा की अनुकूल दशाएँ।

 

 

शीतऋतु में मौसम की क्रियाविधि

 

धरातलीय वायुदाब तथा पवनें

शीत ऋतु में भारत का मौसम मध्य एवं पश्चिम एशिया में वायुदाब के वितरण से प्रभावित होता है। इस समय हिमालय के उत्तर में तिब्बत पर उच्च वायुदाब केंद्र स्थापित हो जाता है। इस उच्च वायुदाब केंद्र के दक्षिण में भारतीय उपमहाद्वीप की ओर निम्न स्तर पर धरातल के साथ-साथ पवनों का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है।मध्य एशिया के उच्च वायुदाब केंद्र से बाहर की ओर चलने वाली धरातलीय पवनें भारत में शुष्क महाद्वीपीय पवनों के रूप में पहुँचती हैं।

 

जेट प्रवाह और ऊपरी वायु परिसंचरण

क्षोभमंडल पर धरातल से लगभग तीन किलोमीटर ऊपर बिल्कुल भिन्न प्रकार का वायु संचरण होता है। ऊपरी वायु संचरण के निर्माण में पृथ्वी के धरातल के निकट वायुमंडलीय दाब की भिन्नताओं की कोई भूमिका नहीं होती। 9 से 13 कि.मी. की ऊँचाई पर समस्त मध्य एवं पश्चिमी एशिया पश्चिम से पूर्व बहने वाली पछुआ पवनों के प्रभावाधीन होता है। ये पवनें तिब्बत के पठार के सामानांतर हिमालय के उत्तर में एशिया महाद्वीप पर चलती हैं। इन्हें जेट प्रवाह कहा जाता है ।

 

पश्चिमी चक्रवातीय विक्षोभ तथा उष्ण कटिबंधीय चक्रवात

1 पश्चिमी विक्षोभ जो भारतीय उपमहाद्वीप में जाड़े के मौसम में पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम से प्रवेश करते हैं, भूमध्य सागर पर उत्पन्न होते हैं। भारत में इनका प्रवेश पश्चिमी जेट प्रवाह द्वारा होता है। शीतकाल में रात्रि के तापमान में वृद्धि इन विक्षोभों के आने का पूर्व संकेत माना जाता है।

2 उष्ण कटिबंधीय चक्रवात बंगाल की खाड़ी तथा हिंद महासागर में उत्पन्न होते हैं। इन उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों से तेज गति की हवाएँ चलती हैं और भारी बारिश होती है।
3 ये चक्रवात तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के तटीय भागों पर टकराते हैं। मूसलाधार वर्षा और पवनों की तीव्र गति के कारण ऐसे अधिकतर चक्रवात अत्यधिक विनाशकारी होते हैं।

 

 

ग्रीष्म ऋतु में मौसम की क्रियाविधि

 

धरातलीय वायुदाब तथा पवनें

गर्मी का मौसम शुरू होने पर जब सूर्य उत्तरायण स्थिति में आता है, उपमहाद्वीप के निम्न तथा उच्च दोनों ही स्तरों पर वायु परिसंचरण में उत्क्रमण हो जाता है। जुलाई के मध्य तक धरातल के निकट निम्न वायुदाब पेटी जिसे अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (आई.टी.सी. ज़ेड) कहा जाता है, उत्तर की ओर खिसक कर हिमालय के लगभग समानांतर 20° से 25° उत्तरी अक्षांश पर स्थित हो जाती है। इस समय तक पश्चिमी जेट प्रवाह भारतीय क्षेत्र से लौट चुका होता है।

 

दक्षिण पश्चिम मानसून 

ITCZ Zone होने के कारण विभिन्न दिशाओं से पवनों को अपनी ओर आकर्षित करता है। दक्षिणी गोलार्द्ध से उष्णकटिबंधीय सामुद्रिक वायु संहति (एम.टी.) विषुवत वृत्त को पार करके सामान्यतः दक्षिण-पश्चिमी दिशा में इसी कम दाब वाली पेटी की ओर अग्रसर होती है। यही आर्द्र वायुधारा दक्षिण-पश्चिम मानसून कहलाती है।

 

जेट प्रवाह एवं ऊपरी वायु संचरण

वायुदाब एवं पवनों का उपर्युक्त प्रतिरूप केवल क्षोभमंडल के निम्न स्तर पर पाया जाता है। जून में प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग पर पूर्वी जेट – प्रवाह 90 कि.मी. प्रति घंटा की गति से चलता है। यह जेट प्रवाह अगस्त में 15° उत्तर अक्षांश पर तथा सितंबर में 22° उत्तर अक्षांश पर स्थित हो जाता है। ऊपरी वायुमंडल में पूर्वी जेट – प्रवाह सामान्यतः 30° उत्तर अक्षांश से परे नहीं जाता।

 

पूर्वी जेट प्रवाह तथा उष्णकटिबंधीय चक्रवात : पूर्वी जेट-प्रवाह उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को भारत में लाता है। ये चक्रवात भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा के वितरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन चक्रवातों के मार्ग भारत में सर्वाधिक वर्षा वाले भाग हैं। इन चक्रवातों की बारंबारता, दिशा, गहनता एवं प्रवाह एक लंबे दौर में भारत की ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा के प्रतिरूप निर्धारण पर पड़ता

 

 

 

भारतीय मानसून की प्रकृति

मानसून की सही-सही प्रकृति व उसके कारणों को जानने के अनेक प्रयास किए गए, किंतु अब तक कोई भी एक सिद्धांत इसे पूरी तरह से स्पष्ट नहीं कर पाया। अध्ययन क्षेत्रीय स्तर की बजाय भूमंडलीय स्तर पर किया गया।

दक्षिण एशियाई क्षेत्र में वर्षा के कारणों का व्यवस्थित अध्ययन मानसून के कारणों को समझने में सहायता करता है। इसके कुछ विशेष पक्ष इस प्रकार हैं।

 

1) मानसून का आरंभ तथा उसका स्थल की ओर बढ़ना

(ii) वर्षा लाने वाले तंत्र (उदाहरणत: उष्ण कटिबंधीय चक्रवात) तथा मानसूनी वर्षा की आवृत्ति एवं वितरण के बीच संबंध;

(iii) मानसून में विच्छेद ।

 

 

मानसून का आरंभ

 

मानसून का भारत में प्रवेशः दक्षिण-पश्चिमी मानसून केरल तट पर 1 जून को पहुँचता है और शीघ्र ही 10 और 13 जून के बीच ये आई पवनें मुंबई व कोलकाता तक पहुँच जाती हैं। मध्य जुलाई तक संपूर्ण उपमहाद्वीप दक्षिण-पश्चिम मानसून के प्रभावाधीन हो जाता है

 

 

मानसूनी वर्षा का वितरण

 

1) पहला तंत्र उष्ण कटिबंधीय अवदाब है, जो बंगाल की खाड़ी या उससे भी आगे पूर्व में दक्षिणी चीन सागर में पैदा होता है तथा उत्तरी भारत के मैदानी भागों में वर्षा करता है।

2) दूसरा तंत्र अरब सागर से उठने वाली दक्षिण-पश्चिम मानसून धारा है, जो भारत के पश्चिमी तट पर वर्षा करती है। पश्चिमी घाट के साथ-साथ होने वाली अधिकतर वर्षा पर्वतीय है,

 

 

मानसून में विच्छेद

दक्षिण-पश्चिम मानसून काल में एक बार कुछ दिनों तक वर्षा होने के बाद यदि एक-दो या कई सप्ताह तक वर्षा न हो तो इसे मानसून विच्छेद कहा जाता है।

 

मानसून विछेदन के कारण

(i) उत्तरी भारत के विशाल मैदान में मानसून का विच्छेद उष्ण कटिबंधी चक्रवातों की संख्या कम हो जाने से और अंतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति में बदलाव आने से होता है।

(ii) पश्चिमी तट पर मानसून विच्छेद तब होता है जब आर्द्र पवनें तट के समानांतर बहने लगें।

(iii) राजस्थान में मानसून विच्छेद तब होता है, जब वायुमंडल के निम्न स्तरों पर तापमान की विलोमता वर्षा करने वाली आर्द्र पवनों को ऊपर उठने से रोक देती है।

 

मानसून का निर्वतन

 

मानसून के पीछे हटने या लौट जाने को मानसून का निवर्तन कहा जाता है। सितंबर के आरंभ से उत्तर-पश्चिमी भारत से मानसून पीछे हटने लगती है और मध्य अक्तूबर तक यह दक्षिणी भारत को छोड़ शेष समस्त भारत से निवर्तित हो जाती है। लौटती हुई मानसून पवनें बंगाल की खाड़ी से जल वाष्प ग्रहण करके उत्तर-पूर्वी मानसून के रूप में तमिलनाडु में वर्षा करती हैं।

 

 

 ऋतुओं की लय

भारत की जलवायवी दशाओं को उसके वार्षिक ऋतु चक्र के माध्यम से सर्वश्रेष्ठ ढंग से व्यक्त किया जा सकता है। मौसम वैज्ञानिक वर्ष को निम्नलिखित चार ऋतुओं में बाँटते हैं: 

(i) शीत ऋतु

(ii) ग्रीष्म ऋतु

(iii) दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु और

(iv) मानसून के निवर्तन की ऋतु

 

 

 

 दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु (वर्षा ऋतु )

 

मई के महीने में उत्तर-पश्चिमी मैदानों में तापमान के तेजी से बढ़ने के कारण निम्न वायुदाब की दशाएँ और अधिक गहराने लगती हैं। जो हिंद महासागर से आने वाली दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनों को आकर्षित कर लेती हैं। ये दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार करके बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में प्रवेश कर जाती हैं, जहाँ ये भारत के ऊपर विद्यमान वायु परिसंचरण में मिल जाती हैं। भूमध्यरेखीय गर्म समुद्री धाराओं के ऊपर से गुजरने के कारण ये पवनें अपने साथ पर्याप्त मात्रा में आर्द्रता लाती हैं। भूमध्यरेखा को पार करके इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिमी हो जाती है। इसी कारण इन्हें दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहा जाता है।

 

 

 

मानसून विस्फोट

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु में वर्षा अचानक आरंभ हो जाती है। पहली बारिश का असर यह होता है कि तापमान में काफी गिरावट आ जाती है। प्रचंड गर्जन और बिजली की कड़क के साथ इन आर्द्रता भरी पवनों का अचानक चलना प्राय: मानसून का ‘प्रस्फोट’ कहलाता है।

 

 

अरब सागर की मानसून पवनें

अरब सागर से उत्पन्न होने वाली मानसून पवनें आगे तीन शाखाओं में बँटती हैं

(i) इसकी एक शाखा को पश्चिमी घाट रोकते हैं। ये पवनें पश्चिमी घाट की ढलानों पर 900 से 1200 मीटर की ऊँचाई तक चढ़ती हैं। अतः ये पवनें तत्काल ठंडी होकर सह्याद्रि की पवनाभिमुखी ढाल तथा पश्चिमी तटीय मैदान पर 250 से 400 सेंटीमीटर के बीच भारी वर्षा करती हैं।

ii)दूसरी शाखा मुंबई के उत्तर में नर्मदा और तापी नदियों की घाटियों से होकर मध्य भारत में दूर तक वर्षा करती है।

iii) इस मानसून की तीसरी शाखा सौराष्ट्र प्रायद्वीप और कच्छ से टकराती है। वहाँ से यह अरावली के साथ-साथ पश्चिमी राजस्थान को लाँघती है और बहुत ही कम वर्षा करती है।

 

 

 

 तमिलनाडु तट ऋतु में शुष्क क्यों रह जाता है?

इसके लिए दो वर्षा कारक उत्तरदायी हैं।

(i) तमिलनाडु तट बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनों के समानांतर पड़ता है।

ii) यह दक्षिण-पश्चिमी मानसून की अरब सागर शाखा के वृष्टि क्षेत्र में स्थित है।

 

 

 मानसून वर्षा की विशेषताएँ

 

(i) दक्षिण-पश्चिमी मानसून से प्राप्त होने वाली वर्षा मौसमी है, जो जून से सितंबर के दौरान होती है।

ii) मानसून वर्षा मुख्य रूप से उच्चावच अथवा भूआकृति द्वारा नियंत्रित होती है।

(iii) समुद्र से बढ़ती दूरी के साथ मानसून वर्षा में घटने की प्रवृत्ति पायी जाती है।

(iv) किसी एक समय में मानसून वर्षा कुछ दिनों के आर्द्र दौरों में आती है। इन गीले दौरों में कुछ सूखे अंतराल भी आते हैं, जिन्हें विभंग या विच्छेद कहा जाता है।

v) ग्रीष्मकालीन वर्षा मूसलाधार होती है, जिससे बहुत-सा पानी बह जाता है और मिट्टी का अपरदन होता है।

(vi) भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में मानसून का अत्यधिक महत्त्व है,

vii) मानसून वर्षा का स्थानिक वितरण भी असमान है. जो 12 से.मी. से 250 से.मी. से अधिक वर्षा के रूप में पाया जाता है। (viii) कई बार पूरे देश में या इसके एक भाग में वर्षा का आरंभ काफी देर से होता है।

 

 

 भारत की परंपरागत ऋतुएँ

भारतीय परंपरा के अनुसार वर्ष को द्विमासिक छः ऋतुओं में बाँटा जाता है।

 

 

वर्षा का वितरण

भारत में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 125 सेंटीमीटर है ।

 

अधिक वर्षा वाले क्षेत्र: अधिक वर्षा पश्चिमी तट, पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्व के उप- हिमालयी क्षेत्र तथा मेघालय की पहाड़ियों पर होती है। 200cm से अधिक वर्षा

मध्यम वर्षा के क्षेत्र: गुजरात के दक्षिणी भाग, पूर्वी तमिलनाडु, ओडिशा सहित उत्तर-पूर्वी प्रायद्वीप, झारखंड, बिहार पूर्वी मध्य प्रदेश । 100 – 200 cm वर्षा ।

अपर्याप्त वर्षा के क्षेत्र: प्रायद्वीप के कुछ भागों विशेष रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में लद्दाख और पश्चिमी राजस्थान के अधिकतर भागों में 50 सेंटीमीटर से कम वर्षा होती है।

न्यून वर्षा के क्षेत्र: पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू व कश्मीर, पूर्वी राजस्थान, गुजरात तथा दक्कन के पठार पर वर्षा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होती है।

 

 

 

 

 भारत के जलवायु प्रदेश

कोपेन ने अपने जलवायु वर्गीकरण का आधार तापमान तथा वर्षण के मासिक मानों को रखा है। उन्होंने जलवायु के पाँच प्रकार माने हैं, जिनके नाम हैं :

(i) उष्ण कटिबंधीय जलवायु जहाँ सारा साल औसत मासिक तापमान 18° सेल्सियस से अधिक रहता है; (ii) शुष्क जलवायु, जहाँ तापमान की तुलना में वर्षण बहुत कम होता है और इसलिए शुष्क है। शुष्कता कम होने पर यह अर्ध-शुष्क मरुस्थल (S) कहलाता

है; शुष्कता अधिक है तो यह मरुस्थल (W) होता है। (iii) गर्म जलवायु, जहाँ सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान 18° सेल्सियस और 3° सेल्सियस के बीच रहता है;

(iv) हिम जलवायु, जहाँ सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 10° सेल्सियस से अधिक और सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान 30 सेल्सियस से कम रहता है;

(v) बर्फीली जलवायु जहाँ सबसे गर्म महीने का तापमान 10° सेल्सियस से कम रहता है।

 

 

मानसून और भारत का आर्थिक जीवन

 

(i) मानसून वह धुरी है जिस पर समस्त भारत का जीवन-चक्र घूमता है, क्योंकि भारत की 64 प्रतिशत जनता भरण-पोषण के लिए खेती पर निर्भर करती है, जो मुख्यतः दक्षिण-पश्चिमी मानसून पर आधारित है।

(ii) हिमालयी प्रदेशों के अतिरिक्त शेष भारत में वर्ष भर यथेष्ट गर्मी रहती है, जिससे सारा साल खेती की जा सकती है।

(iii) मानसून जलवायु की क्षेत्रीय विभिन्नता नाना प्रकार की फसलों को उगाने में सहायक है।

(iv) वर्षा की परिवर्तनीयता देश के कुछ भागों में सूखा अथवा बाढ़ का कारण बनती है।

(v) भारत में कृषि की समृद्धि वर्षा के सही समय पर आने तथा उसके पर्याप्त वितरित होने पर निर्भर करती है। यदि वर्षा नहीं होती तो कृषि पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ सिंचाई के साधन विकसित नहीं हैं।

(vi) मानसून का अचानक प्रस्फोट देश के व्यापक क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न कर देता है।

(vii) उत्तर भारत में शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों द्वारा होने वाली शीतकालीन वर्षा रबी की फसलों के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध होती है।

(viii) भारत की जलवायु की क्षेत्रीय विभिन्नता भोजन,वस्त्र और आवासों की विविधता में उजागर होती है।

 

 

 

 

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