अंग्रेज :- ” देशी समाज को सभ्य बनाना ” है और उनके रीति-रिवाजों और मूल्य-मान्यताओं को बदलना है।और भारतीयों को शिक्षित “सभ्य” ,और ” अच्छी प्रजा ” बनाने का लक्ष्य था।
भाषाविद :- एक ऐसा व्यक्ति जो कई भाषाओं का जानकार और विद्यार्थी होता है।
प्राच्यवादी :- एशिया की भाषा और संस्कृति का गहन ज्ञान रखने वाले लोग।
अंग्रेज़ शिक्षा को किस तरह देखते थे
प्राच्यवाद की परंपरा :- सन 1783 में विलियम जोन्स नाम के एक सज्जन कलकत्ता आए। उन्हें ईस्ट कंपनी द्वारा स्थापित किए गए सुप्रीम कोर्ट में जूनियर जज के पद पर तैनात किया गया था। क़ानून का माहिर होने के साथ-साथ जोन्स एक भाषाविद भी थे।
उन्होंने ऑक्सफर्ड में ग्रीक और लैटिन का अध्ययन किया था। वे फ्रैंच और अंग्रेज़ी जानते थे और अपने एक दोस्त से अरबी सीखने के अलावा फ़ारसी भी सीख चुके थे। इसके अलावा संस्कृत , कानून , दर्शन , धर्म , राजनीति , नैतिकता , अंकगणित , चिकित्सा विज्ञान , विज्ञान , प्राचीन भारतीय पुस्तकों का अध्ययन शुरू कर दिया।
हेनरी टॉमस कोलब्रुक :- वह संस्कृत तथा हिंदुत्व के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों के विद्धान थे। हैनरी टॉमस कोलब्रुक , नैथेनियल और जोन्स ने ‘ एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल ‘ के गठन किया और एशियाटिक रिसर्च नामक शोध पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।
मदरसा :- सीखने के स्थान को अरबी भाषा में मदरसा कहा जाता है। यह किसी भी तरह का स्कूल या कॉलेज या कोई और संस्थान हो सकता है। 1781 में अरबी , फ़ारसी , इस्लामिक कानून के अध्ययन को बढ़ावा देने के लिए कलकत्ता में एक मदरसा खोल गया। 1791 में बनारस में ” हिन्दू कॉलेज ” की स्थापना की गई ताकि वहाँ प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों की शिक्षा दी जा सके और देश का शासन चलाने में मदद मिले।
मुंशी :- ऐसा व्यक्ति जो फ़ारसी पढ़ना , लिखना और पढ़ाना जानता हो।
पूरब की जघन्य गलतियाँ :-
उन्नसवीं सदी की शुरूआत से ही सारे अंग्रेज अफ़सर शिक्षा के प्राच्यवादी दृष्टिकोण की आलोचना करने लगे थे। उनका कहना था कि पूर्वी समाजों का ज्ञान त्रुटियों से भरा हुआ और अवैज्ञानिक है। उनके मुताबिक पूर्वी साहित्य अगंभीर और सतही था। इसलिए उन्होंने दलील दी कि अंग्रेजों को अरबी और संस्कृत भाषा व साहित्य के अध्ययन को बढ़ावा देने पर इतना ख़र्चा करना चाहिए ।
भारतीयों को पूर्वी समाजों के काव्य और धार्मिक साहित्य की बजाय ये पढ़ाना जाना चाहिए कि पश्चिम ने किस तरह की वैज्ञानिक और तकनीकी सफलताएँ हासिल कर ली है।
मैकॉले :- 1835 में अंग्रेजों का शिक्षा अधिनियम पारित किया गया। अंग्रेजी पढ़ाना लोगों को सभ्य बनाने , उनकी रूचियों , मूल्यों और संस्कृति को बदलने का रास्ता हो सकता है। कलकत्ता का मदरसे और बनारस संस्कृत कॉलेज जैसे प्राच्यवादी संस्थाओं को प्रोत्साहन न दिया जाए ।
व्यवसाय के लिए शिक्षा :- 1854 में ईस्ट इंडिया कंपनी के लंदन स्थित कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने भारतीय गवर्नर जनरल को शिक्षा के विषय में एक नोट भेजा। कंपनी के नियंत्रक मंडल के अध्यक्ष चलर्स वुड के नाम से जारी किए गए इस संदेश को वुड का नीतिपत्र ( वुड्स डिस्पैच ) के नाम से जाना जाता है।
प्राच्यवादी ज्ञान के स्थान पर यूरोपीय शिक्षा को।अपनाने से व्यवहारिक आर्थिक क्षेत्र में लाभ प्राप्त होंगे। उसके मुताबिक , यूरोपीय शिक्षा बीके माध्यम से भारतीयों को व्यापार और वाणिज्य के विस्तार से होने वाले लाभों को समझने और देश के संसाधनों के विकास का महत्व समझने में मदद मिलेगी। और यूरोपीय जीवन शैली से उनकी रुचियों और आकांक्षाओं में बदलाव आएगा।
1854 में नीतिपत्र के बाद अंग्रेजों ने कई अहम कदम उठाए। सरकारी शिक्षा विभागों का गठन किया ताकि शिक्षा संबंधी सभी मामलों पर सरकार का नियंत्रण स्थापित किया जा सके। स्कूली शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन के प्रयास भी किए गए।
स्थानीय पाठशालाओं का क्या हुआ
विलियम एडम की रिपोर्ट :- 1830 के दशक में स्कॉटलैंड से आए ईसाई प्रचारक विलियम एडम ने बंगाल और बिहार के जिलों का दौरा किया। कंपनी ने उन्हें डेढ़ी स्कूलों में शिक्षा की प्रगति पर रिपोर्ट तैयार करने का जिम्मा सौंपा था। एडम ने पाया कि बंगाल और बिहार में एक लाख से ज्यादा पाठशालाएँ है।
नई दिनचर्या , नए नियम :- उन्नसवीं सदी के मध्य तक कंपनी का ध्यान मुख्य रूप बसे उच्च शिक्षा पर था।1854 में कंपनी ने देशी शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने का फैसला लिया। कंपनी एक नई दिनचर्या , नए नियमों और नियमित निरीक्षणों के जरिए पाठशालाओं को और व्यवस्थित करना चाहती थी।
राष्ट्रीय शिक्षा की कार्यसूची :- उन्नसवीं सदी की शुरुआत से ही भारत के विभिन्न भागों के बहुत सारे विचारक शिक्षा के व्यापक प्रसार की जरुरत पर जोर देने लगे थे। भारतीयों का मानना था कि पश्चिमी शिक्षा का आधुनिकीकरण कर सकती है।
भारतीय पश्चिमी शिक्षा के विरुद्ध थे महात्मा गांधी और रविन्द्रनाथ टैगोर।
महात्मा गांधी :- ” अंग्रेजी शिक्षा ने हमें गुलाम बना दिया है “
औपनिवेशिक शिक्षा :- महात्मा गांधी का कहना था कि औपनिवेशिक शिक्षा ने भारतीयों के मस्तिष्क में हीनता का बोध पैदा कर दिया है। इसके प्रभाव में आकर यहाँ के लोग पश्चिमी सभ्यता को श्रेष्ठतर मानने लगे हैं और अपनी संस्कृति के प्रति उनका गौरव भाव नष्ट हो गया है। महात्मा गांधी ने कहा कि इस शिक्षा में विष भरा है, यह पापपूर्ण है, इसने भारतीयों को दास बना है , इसने लोंगो पर प्रभाव डाला है। महात्मा गांधी एक ऐसी शिक्षा के पक्षधर थे जो भारतीयों के भीतर प्रतिष्ठा और स्वाभिमान का भाव पुनर्जीवित करे।
महात्मा गांधी की दृढ़ मान्यता थी कि शिक्षा केवल भरतीय भाषओं में ही दी जानी चाहिए । उनके मुताबिक अंग्रेजी में दी जा रही शिक्षा भारतीयों को अपाहिज बना देती है और अपने सामाजिक परिवेश से काट दिया है और उन्हें “अपने ही भूमि पर अजनबी ” बना दिया है।
गांधी का तर्क था कि शिक्षा से व्यक्ति का दिमाग और आत्मा विकसित होनी चाहिए।
टैगोर का ” शांतिनिकेतन ” :- रविन्द्रनाथ टैगोर ने यह संस्था 1901 में शुरू की थी। टैगोर जब बच्चे थे तो स्कूल जाने से बहुत चिढ़ते थे। वहाँ उनका दम घुटता था। उन्हें स्कूल का माहौल दमनकारी लगता था। मानो स्कूल जेल हो , क्योंकि वहाँ बच्चे मनचाहा कभी नही कर पाते थे। जब दूसरे बच्चे शिक्षक को सुन रहे होते थे , टैगोर का दिमाग कहीं और भटक रहा होता था। जब वे बड़े हुए तो उन्होंने एक ऐसा स्कूल खोलने के बारे में सोच जहाँ बच्चे खुश रह सके , जहाँ वे मुक्त और रचनाशील हों , जहाँ वे अपने विचारों और आकांक्षाओं को समझ सकें।
टैगोर :- बचपन का समय अपने आप सीखने का समय होना चाहिए। शिक्षा व्यवस्था के कड़े और बंधनकारी अनुशासन से मुक्त होना चाहिए।
शिक्षक :- शिक्षक कल्पनाशील हों , बच्चे को समझते हों और उनके अंदर उत्सुकता , जानने की चाह विकसित करने में मदद दें और रचनाशीलता हो।
गांधी :- बालक के दिमाग और आत्मा का सर्वोच्च विकास शिक्षा से ही संभव है। साक्षरता न तो शिक्षा का अंत और न ही उसकीं शुरुआत । यह तो केवल एक साधन है।
अध्याय : 8 महिलाएँ जाती एवं सुधार