अध्याय 6 : भू- आकृतिक प्रकियाएँ

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 भू-पर्पटी

भू-पर्पटी गत्यात्मक है। यह क्षैतिज तथा ऊर्ध्वाधर दिशाओं में संचलित होती रहती है। भू-पर्पटी का निर्माण करने वाले पृथ्वी के भीतर सक्रिय आंतरिक बलों में पाया जाने वाला अंतर ही पृथ्वी के बाह्य सतह में अंतर के लिए उत्तरदायी है। मूलतः, धरातल सूर्य से प्राप्त ऊर्जा द्वारा प्रेरित बाह्य बलों से अनवरत प्रभावित होता रहता है। निश्चित रूप से आंतरिक बल अभी भी सक्रिय हैं,

 

भू- पर्पटी पर दो प्रकार के बल कार्य करते है

1) बहिर्जनिक (Exogenic) : बाह्य बलों को कहा जाता है

2)अंतर्जनित (Endogenic) : आंतरिक बलों को कहा जाता है

 

बहिर्जनिक बलों की क्रियाओं का परिणाम होता है- उभरी हुई भू-आकृतियों का विघर्षण (Wearing down) तथा बेसिन / निम्न क्षेत्रों गर्तों का भराव (अधिवृद्धि / तल्लोचन )

 

 

तल संतुलन (Gradation)

धरातल पर अपरदन के माध्यम से उच्चावच के मध्य अंतर के कम होने को तल संतुलन (Gradation) कहते हैं। अंतर्जनित शक्तियाँ निरंतर धरातल के भागों को ऊपर उठाती हैं या उनका निर्माण करती हैं

अतएव भिन्नता तब तक बनी रहती है जब तक बहिर्जनिक एवं अन्तर्जनित बलों के विरोधात्मक कार्य चलते रहते हैं। सामान्यतः अंतर्जनित बल मूल रूप से भू-आकृति निर्माण करने वाले बल हैं तथा बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ मुख्य रूप से भूमि विघर्षण बल होती हैं।

 

 

भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ (Geomorphic Processes)

 

धरातल के पदार्थों पर अंतर्जनित एवं बहिर्जनिक बलों द्वारा भौतिक दबाव तथा रासायनिक क्रियाओं के कारण भूतल के विन्यास में परिवर्तन को भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ कहते हैं।

 

 

बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ

1 अपक्षय
2 वृहत क्षरण
3 अपरदन
4 निक्षेपण

 

 

अंतर्जनित भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ

1 पटल विरूपण
2 ज्वालामुखीयता

 

 

 

भू-आकृतिक कारक

 

किसी भी बहिर्जनिक तत्त्व (जैसे- जल, हिम, वायु इत्यादि), जो धरातल के पदार्थों का अधिग्रहण (Acquire ) तथा परिवहन करने में सक्षम है, जब प्रकृति के ये तत्त्व ढाल प्रवणता के कारण गतिशील हो जाते हैं तो पदार्थों को हटाकर ढाल के सहारे ले जाते हैं और निचले भागों में निक्षेपित कर देते हैं।

 एक कारक (Agent) एक गतिशील माध्यम (जैसे- प्रवाहित जल, हिमानी, हवा, लहरें एवं धाराएँ इत्यादि) है जो धरातल के पदार्थों को हटाता ले जाता तथा निक्षेपित करता है। इस प्रकार प्रवाहयुक्त जल भूमिगत जल, हिमानी, हवा, लहरों, धाराओं इत्यादि को भू-आकृतिक कारक कहा जा सकता है।

 

 

गुरुत्वाकर्षण बल

गुरुत्वाकर्षण, ढाल के सहारे सभी गतिशील पदार्थों को सक्रिय बनाने वाली दिशात्मक (Directional) बल होने के साथ-साथ धरातल के पदार्थों पर दबाव (Stress) डालता है।

 

 

अंतर्जनित प्रक्रियाएँ (Endogenic processes)

 

पृथ्वी के अंदर से निकलने वाली ऊर्जा भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के लिए प्रमुख बल स्रोत होती है। पृथ्वी के अंदर की ऊर्जा अधिकांशतः रेडियोधर्मी क्रियाओं, घूर्णन (Rotational) एवं ज्वारीय घर्षण तथा पृथ्वी की उत्पत्ति से जुड़ी ऊष्मा द्वारा उत्पन्न होती है। भू-तापीय प्रवणता एवं अंदर से निकले ऊष्मा प्रवाह से प्राप्त ऊर्जा पटल विरूपण (Disastrophism) एवं ज्वालामुखीयता को प्रेरित करती है। भू-तापीय प्रवणता एवं अंदर के ऊष्मा प्रवाह, भू-पर्पटी की मोटाई एवं दृढ़ता में अंतर के कारण अंतर्जनित बलों के कार्य समान नहीं होते हैं। अतः विवर्तनिक द्वारा नियंत्रित मूल भू-पर्पटी की सतह असमतल होती है।

 

 

 पटल विरूपण (Diastrophism)

सभी प्रक्रियाएँ जो भू-पर्पटी को संचलित, उत्थापित तथा निर्मित करती हैं. पटल विरूपण के अंतर्गत आती हैं।

 

इनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं

(1) तीक्ष्ण वलयन के माध्यम से पर्वत निर्माण तथा भू-पर्पटी की लंबी एवं संकीर्ण पट्टियों को प्रभावित करने वाली पर्वतनी प्रक्रियाएँ

(ii) धरातल के बड़े भाग के उत्थापन या विकृति में संलग्न महाद्वीप रचना संबंधी प्रक्रियाएँ,

(iii) अपेक्षाकृत छोटे स्थानीय संचलन के कारण उत्पन्न भूकंप

, (iv) पर्पटी प्लेट के क्षैतिज संचलन करने में प्लेट विवर्तनिकी की भूमिका । प्लेट विवर्तनिक / पर्वतनी की प्रक्रिया में भू-पर्पटी वलयन के रूप में तीक्ष्णता से विकृत हो जाती है।

 

 ज्वालामुखीयता

ज्वालामुखीयता के अंतर्गत पिघली हुई शैलों या लावा (Magma ) का भूतल की ओर संचलन एवं अनेक आंतरिक तथा बाह्य ज्वालामुखी स्वरूपों का निर्माण सम्मिलित होता है।

 

 

बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ (Exogenic processes)

 

बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ अपनी ऊर्जा ‘सूर्य द्वारा निर्धारित वायुमंडलीय ऊर्जा एवं अंतर्जनित शक्तियों से नियंत्रित विवर्तनिक कारकों से उत्पन्न प्रवणता से प्राप्त करती हैं।

 

प्रतिबल

गुरुत्वाकर्षण बल ढालयुक्त सतह वाले धरातल पर कार्यरत रहता है तथा ढाल की दिशा में पदार्थ को संचलित करता है। प्रति इकाई क्षेत्र पर अनुप्रयुक्त बल को प्रतिबल कहते है ।

प्रतिबल धक्का एवं खिंचाव से उत्पन्न होता है। इससे विकृति प्रेरित होती है। धरातल के पदार्थों के सहारे सक्रिय बल अपरूपण प्रतिबल (विलगकारी बल) होते हैं। यही प्रतिबल शैलों एवं धरातल के पदार्थों को तोड़ता है प्रतिबल का परिणाम कोणीय विस्थापन या विसर्पण / फिसलन होता है।

धरातल के पदार्थ गुरुत्वाकर्षण प्रतिबल के अतिरिक्त आण्विक प्रतिबलों से भी प्रभावित होते हैं, जो कई कारकों, जैसे- तापमान में परिवर्तन, क्रिस्टलन एवं पिघलन द्वारा उत्पन्न होते हैं।

 

 

 अनाच्छादन

अनाच्छादन शब्द का अर्थ है निरावृत्त करना या आवरण हटाना । सभी बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को एक सामान्य शब्दावली अनाच्छादन के अंतर्गत रखा जा सकता है।

अपक्षय, वृहत् क्षरण, संचलन, अपरदन, परिवहन सभी अनाच्छादन के अंतर्गत आते है । बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न-भिन्न होती हैं। तापमान एवं वर्षण जलवायु के दो महत्त्वपूर्ण घटक हैं जो कि विभिन्न भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं।

वनस्पति का घनत्व, प्रकार एवं वितरण, जो प्रमुखतः वर्षा एवं तापक्रम पर निर्भर करते हैं, बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाओं पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं

 

 

अन्य कारण जो भू-आकृतिक प्रक्रिया पर प्रभाव डालते है ।

ऊँचाई में अंतर, दक्षिणमुखी ढालों पर पूर्व एवं पश्चिममुखी ढालों की अपेक्षा अधिक सूर्यातप प्राप्ति आदि के कारण स्थानीय भिन्नता पायी जाती है। पुनश्च वायु का वेग एवं दिशा वर्षण की मात्रा एवं प्रकार इसकी गहनता, वर्षण एवं वाष्पीकरण में संबंध तापक्रम की दैनिक श्रेणी, हिमकरण एवं पिघलन की आवृत्ति तुषार (Frost ) व्यापन की गहराई

 

 यदि जलवायवी कारक समान हों तो बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के कार्यों की गहनता शैलों के प्रकार एवं संरचना पर निर्भर करती है। संरचना में वलन, भ्रंश, संस्तर का पूर्वाभिमुखीकरण (Orientation). झुकाव, जोड़ों की उपस्थिति या अनुपस्थिति, संस्तरण तल, घटक खनिजों की कठोरता या कोमलता तथा उनकी रासायनिक संवेदनशीलता, पारगम्यता (Permeability) या अपारगम्यता इत्यादि सम्मिलित माने गये हैं।

 

 

अपक्षय

 

अपक्षय को मौसम एवं जलवायु के कार्यों के माध्यम से शैलों के यांत्रिक विखंडन एवं रासायनिक वियोजन/ अपघटन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। अपक्षय के अंदर ही अनेक प्रक्रियाएँ हैं जो पृथक या (प्रायः) सामूहिक रूप से धरातल के पदार्थों को प्रभावित करती हैं।

 

 

अपक्षय प्रक्रियाओं के तीन प्रमुख प्रकार हैं:

(1) रासायनिक
(2) भौतिक या यांत्रिक
(3) जैविक

 

 

 

1) रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ

अपक्षय प्रक्रियाओं का एक समूह जैसे कि विलयन, कार्बोनेटीकरण, जलयोजन, ऑक्सीकरण तथा न्यूनीकरण शैलों के अपघटन, विलयन अथवा न्यूनीकरण का कार्य करते हैं, जो कि रासायनिक क्रिया द्वारा सूक्ष्म ( Clastic) अवस्था में परिवर्तित हो जाती हैं। ऑक्सीजन, धरातलीय जल मृदा-जल एवं अन्य अम्लों की प्रक्रिया द्वारा चट्टानों का न्यूनीकरण होता है।

 

 

 

2) भौतिक अपक्षय प्रक्रियाएँ

भौतिक या यांत्रिक अपक्षय प्रक्रियाएँ कुछ अनुप्रयुक्त बलों पर निर्भर करती हैं। ये अनुप्रयुक्त बल निम्नलिखित हो सकते हैं

 

i) गुरुत्वाकर्षक बल,
ii) तापक्रम में परिवर्तन
iii) शुष्कन एवं आर्द्रन चक्रों से नियंत्रित जल का दबाव

 

भौतिक अपक्षय प्रक्रियाओं में अधिकांश तापीय विस्तारण एवं दबाव के निर्मुक्त होने (Release) के कारण होता है। ये प्रक्रियाएँ लघु एवं मंद होती हैं

 

 

3) जैविक कार्य एवं अपक्षय

जैविक अपक्षय जीवों की वृद्धि या संचलन से उत्पन्न अपक्षय वातावरण एवं भौतिक परिवर्तन से खनिजों एवं आयन (lons) के स्थानांतरण के कारण होता है।

 

केंचुओं, दीमकों, चूहों, कृंतकों इत्यादि जैसे जीवों द्वारा बिल खोदने एवं वेजिंग (फान) के द्वारा नयी सतहों (Surfaces) का निर्माण होता है जिससे रासायनिक प्रक्रिया के लिए अनावृत्त (Expose) सतह में नमी एवं हवा के वेधन में सहायता मिलती है

 

 

अपक्षय का महत्त्व

अपक्षय शैलों को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ने तथा आवरण प्रस्तर एवं मृदा निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं और अपरदन एवं वृहत संचलन के लिए भी उत्तरदायी होते हैं।

यदि शैलों का अपक्षय न हो तो अपरदन का कोई महत्त्व नहीं होता। इसका अर्थ है कि अपक्षय वृहत क्षरण, अपरदन, उच्चावच के लघुकरण में सहायक होता है एवं स्थलाकृतियाँ अपरदन का परिणाम हैं।

 

 

राष्ट्रीय अर्थयव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण

शैलों का अपक्षय एवं निक्षेपण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अतिमहत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मूल्यवान खनिजों जैसे- लोहा, मैंगनीज, एल्यूमिनियम, ताँबा के अयस्कों के समृद्धीकरण (Enrichment) एवं संकेंद्रण (Concentration) में यह सहायक होता है। अपक्षय मृदा निर्माण की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है।

 

 

 बृहत् संचलन

बृहत् संचलन के अंतर्गत वे सभी संचलन आते हैं, जिनमें शैलों का बृहत् मलवा (Debris ) गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण ढाल के अनुरूप स्थानांतरित होता है। इसका तात्पर्य है कि वायु, जल, हिम ही अपने साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक मलवा नहीं ढोते, अपितु मलवा भी अपने साथ वायु, जल या हिम ले जाते हैं।

 

बृहत् संचलन में गुरुत्वाकर्षण शक्ति सहायक होती है। तथा कोई भी भू-आकृतिक कारक जैसे- प्रवाहित जल, हिमानी, वायु, लहरें एवं धाराएँ बृहत् संचलन की प्रक्रिया में सीधे रूप से सम्मिलित नहीं होते इसका अर्थ है कि बृहत् संचलन अपरदन के अंदर नहीं आता है

 

बृहत् संचलन की सक्रियता के कई कारक होते हैं। वे इस प्रकार हैं

1) प्राकृतिक एवं कृत्रिम साधनों द्वारा ऊपर के पदार्थों के टिकने के आधार का हटाना।

(ii) ढालों की प्रवणता एवं ऊँचाई में वृद्धि,

(iii) पदार्थों के प्राकृतिक अथवा कृत्रिम भराव के कारण उत्पन्न अतिभार,

(iv) अत्यधिक वर्षा, संतृप्ति एवं ढाल के पदार्थों के स्नेहन (Lubrication) द्वारा उत्पन्न अतिभार,

(v) मूल ढाल की सतह पर से पदार्थया भार का हटना,

(vi) भूकंप आना,

(vii) विस्फोट या मशीनों का कंपन (Vibration),

(viii) अत्यधिक प्राकृतिक रिसाव,

(ix) झीलों, जलाशयों एवं नदियों से भारी मात्रा में जल निष्कासन एवं परिणामस्वरूप ढालों एवं नदी तटों के नीचे से जल का मंद गति से बहना,

(x) प्राकृतिक वनस्पति का अंधाधुंध विनाश। संचलन के निम्न तीन रूप होते हैं:
(i) अनुप्रस्थ विस्थापन ( तुषार वृद्धि या अन्य कारणों से मृदा का अनुप्रस्थ विस्थापन)
(ii) प्रवाह एवं
(iii) स्खलन।

 

 

 

भूस्खलन

भूस्खलन अपेक्षाकृत तीव्र एवं अवगम्य संचलन है। इसमें स्खलित होने वाले पदार्थ अपेक्षतया शुष्क होते हैं। असंलग्न वृहत का आकार एवं आकृति शैल में अनिरंतरता की प्रकृति, क्षरण का अंश तथा ढाल की ज्यामिति पर निर्भर करते हैं।

 

अवसर्पण

ढाल, जिसपर संचलन होता है, के संदर्भ में पश्च- आवर्तन (Rotation) के साथ शैल-मलवा की एक या कई इकाइयों के फिसलन (Slipping) को अवसर्पण कहते हैं।

 

मलबा स्खलन

पृथ्वी के पिंड के पश्च- आवर्तन के बिना मलवा का तीव्र लोटन (Rolling) या स्खलन मलवा स्खलन कहलाता है।

 

शैल पतन

तीव्र नति संस्तरण तल जैसे अनिरंतरताओं के सहारे स्खलन एक समतलीय पात के रूप में घटित होता है। किसी तीव्र ढाल के सहारे शैल खंडों का ढाल से दूरी रखते हुए स्वतंत्र रूप से गिरना शैल पतन (Fall) कहलाता है।

 

 

अपरदन एवं निक्षेपण

अपरदन के अंतर्गत शैलों के मलवे की अवाप्ति (Acquistion ) एवं उनके परिवहन को सम्मिलित किया जाता है

पिंडाकार शैलें जब अपक्षय एवं अन्य क्रियाओं के कारण छोटे-छोटे टुकड़ों (Fragments) में टूटती हैं तो अपरदन के भू-आकृतिक कारक जैसे कि प्रवाहित जल, भौमजल, हिमानी, वायु, लहरें एवं धाराएँ उनको एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थानों को ले जाते हैं जो कि इन कारकों के गत्यात्मक स्वरूप पर निर्भर करते हैं।

 

भू-आकृतिक कारकों द्वारा परिवहन किया जाने वाले चट्टानी मलबे द्वारा अपघर्षण भी अपरदन में पर्याप्त योगदान देता है। भूमिगत जल का कार्य प्रमुखतः किसी क्षेत्र की आश्मिक (Lithological) विशेषताओं द्वारा निर्धारित होता है।

निक्षेपण अपरदन का परिणाम होता है। ढाल में कमी के कारण जब अपरदन के कारकों के वेग में कमी आ जाती तो परिणामतः अवसादों का निक्षेपण प्रारंभ हो जाता है।

 

अपरदन एवं निक्षेपण के कारण धरातल पर क्या होता है? इसका विवेचन अगले अध्यायः ‘भू-आकृतियाँ एवं उनका उद्भव (Evolution)’ में विस्तृत रूप से किया गया है।

 

 

 

 मृदा निर्माण

 

मृदा एक गत्यात्मक माध्यम है जिसमें बहुत सी रासायनिक, भौतिक एवं जैविक क्रियाएँ अनवरत चलती रहती हैं। मृदा अपक्षय अपकर्ष का परिणाम है, यह वैकल्पिक रूप से ठंडी और गर्म या शुष्क एवं आर्द्र हो सकती हैं। यदि मृदा बहुत अधिक ठंडी या बहुत अधिक शुष्क होती है तो जैविक क्रिया मंद या बंद हो जाती है

 

 

 मृदा निर्माण की प्रक्रियाएँ

मृदा निर्माण या मृदाजनन सर्वप्रथम अपक्षय पर निर्भर करती है। यह अपक्षयी प्रावार ( अपक्षयी पदार्थ की गहराई ) ही मृदा निर्माण का मूल निवेश होता है।

जीव एवं पौधों के मृत्त अवशेष ह्यूमस के एकत्रीकरण में सहायक होते हैं। प्रारंभ में गौण घास एवं फर्न्स की वृद्धि हो सकती है बाद में पक्षियों एवं वायु द्वारा लाए गए बीजों से वृक्ष एवं झाड़ियों में वृद्धि होने लगती है। पेडालॉजी मृदा विज्ञान है एवं पेडालॉजिस्ट एक मृदा वैज्ञानिक होता है।

 

 

मृदा निर्माण के कारक

मृदा निर्माण पाँच मूल कारकों द्वारा नियंत्रित होता है। ये कारक है:

(1) मूल पदार्थ (शैलें)
(ii) स्थलाकृति
(iii) जलवायु
(iv) जैविक क्रियाएँ एवं
(v) समय ।

 

जलवायु मृदा निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण सक्रिय कारक है। मृदा के विकास में संलग्न जलवायवी तत्त्वों में प्रमुख हैं:

(i) प्रवणता, वर्षा एवं वाष्पीकरण की बारंबारता व अवधि तथा आर्द्रता,

(ii) तापक्रम में मौसमी एवं दैनिक भिन्नता ।

 

 

 

 मूल पदार्थ / शैल

मृदा निर्माण में मूल शैल एक निष्क्रिय नियंत्रक कारक है। मूल शैल कोई भी स्वस्थाने (In situ) या उसी स्थान पर अपक्षयित शैल मलवा (अवशिष्ट मृदा) या लाये गये निक्षेप (परिवहनकृत मृदा) हो सकती है। मृदा निर्माण गठन (मलवा के आकार) संरचना (एकल / पृथक कणों / मलवा के कणों का विन्यास) तथा शैल निक्षेप के खनिज एवं रासायनिक संयोजन पर निर्भर करता है।

मूल पदार्थ के अंतर्गत अपक्षय की प्रकृति एवं उसकी दर तथा आवरण की गहराई मोटाई प्रमुख विचारणीय तत्त्व होते हैं। समान आधार शैल पर मृदाओं में अंतर हो सकता है तथा असमान आधार पर समान मृदाएँ मिल सकती हैं

 

 

स्थलाकृति / उच्चावच

स्थलाकृति भी एक दूसरा निष्क्रिय नियंत्रक कारक है। स्थलाकृति मूल पदार्थ के आच्छादन अथवा अनावृत होने को सूर्य की किरणों के संबंध में प्रभावित करती हैं तथा स्थलाकृति धरातलीय एवं उप-सतही अप्रवाह की प्रक्रिया को मूल पदार्थ के संबंध में भी प्रभावित करती है।

 

तीव्र ढालों पर मृदा छिछली (Thin) तथा सपाट उच्च क्षेत्रों में गहरी / मोटी (Thick ) होती है। निम्न ढालों जहाँ अपरदन मंद तथा जल का परिश्रवण (Percolation) अच्छा रहता है

 

 

जैविक क्रियाएँ

वनस्पति आवरण एवं जीव जो मूल पदार्थों पर प्रारंभ तथा बाद में भी विद्यमान रहते हैं मृदा में जैव पदार्थ, नमी धारण की क्षमता तथा नाइट्रोजन इत्यादि जोड़ने में सहायक होते हैं। मृत पौधे मृदा को सूक्ष्म विभाजित जैव पदार्थ – ह्यूमस प्रदान करते हैं। कुछ जैविक अम्ल जो ह्यूमस बनने की अवधि में निर्मित होते हैं मृदा के मूल पदार्थों के खनिजों के विनियोजन में सहायता करते हैं।

 

बैक्टीरियल कार्य की गहनता ठंडी एवं गर्म जलवायु की मिट्टियों में अंतर को दर्शाती है। ठंडी जलवायु में ह्यूमस एकत्रित हो जाता है, क्योंकि यहाँ बैक्टीरियल वृद्धि धीमी होती है। आर्द्र, उष्ण एवं भूमध्य रेखीय जलवायु में बैक्टेरियल वृद्धि एवं क्रियाएँ सघन होती हैं

 

 

नाइट्रोजन निर्धारण

बैक्टेरिया एवं मृदा के जीव हवा से गैसीय नाइट्रोजन प्राप्त कर उसे रासायनिक रूप में परिवर्तित कर देते हैं जिसका पौधों द्वारा उपयोग किया जा सकता है। इस प्रक्रिया को नाइट्रोजन निर्धारण (Nitrogen fixation) कहते हैं।

 

 

 कालावधि (समय)

कालावधि तीसरा महत्त्वपूर्ण कारक है। मृदा निर्माण प्रक्रियाओं के प्रचलन में लगने वाले काल (समय) की अवधि मृदा की परिपक्वता एवं उसके पार्श्विका ( Profile) का विकास निर्धारण करती है। एक मृदा तभी परिपक्व होती है जब मृदा निर्माण की सभी प्रक्रियाएँ लंबे काल तक पार्श्विका विकास करते हुए कार्यरत रहती हैं।

थोड़े समय पहले ( Recently ) निक्षेपित जलोढ़ मिट्टी या हिमानी टिल से विकसित मृदाएँ तरुण/युवा (Young) मानी जाती हैं तथा उनमें संस्तर (Horizon) का अभाव होता है

 

 

 

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