अध्याय 12 : औपनिवेशक शहर / Colonial Cities Urbanisation, Planning and Architecture

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औपनिवेशक शहर नगरीकरण नगर-योजना स्थापत्य

 

 

 

★ औपनिवेशिक शहर :-

● इस अध्याय में हम औपनिवेशिक भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया पर चर्चा करेंगे, औपनिवेशिक शहरों की चारित्रिक विशिष्टताओं का अन्वेषण करेंगे और उनमें होने वाले सामाजिक परिवर्तनों को देखेंगे।

● हम तीन बड़े शहरों मद्रास, कलकत्ता तथा बम्बई के – विकासक्रम को गहनता से देखेंगे। तीनों शहर मूलतः मत्स्य ग्रहण तथा बुनाई के गाँव थे। वे इंग्लिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की व्यापारिक गतिविधियों के कारण व्यापार के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गए।

● कम्पनी के एजेंट 1639 में मद्रास तथा 1690 में कलकत्ता में बस गए। 1661 में बम्बई को ब्रिटेन के राजा ने कम्पनी को दे दिया गया था, जिसे उसने पुर्तगाल के शासक से अपनी पत्नी के दहेज के रूप में प्राप्त किया था। कम्पनी ने इन तीन बस्तियों में व्यापरिक तथा प्रशासनिक कार्यालय स्थापित किए।

● उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक ये कस्बे बड़े शहर बन गए थे जहाँ से नए शासक पूरे देश पर नियंत्रण करते थे। आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करने तथा नए शासकों के प्रभुत्व को दर्शाने के लिए संस्थानों की स्थापना की गई।

● भारतीयों ने इन शहरों में राजनीतिक प्रभुत्व का नए तरीकों से अनुभव किया। मद्रास, बम्बई और कलकत्ता के नक्शे अन्य पुराने भारतीय क़स्बों से काफी हद तक अलग थे, और में बनाए गए भवनों पर अपने औपनिवेशिक उद्भव की स्पष्ट छाप इन शहरों थी। इमारतें क्या अभिव्यक्त करती हैं और स्थापत्य क्या ज़ाहिर कर सकता है ?

● याद रखिए कि स्थापत्य हमारे विचारों को पत्थर, ईंट, लकड़ी या प्लास्टर के माध्यम से आकार देने में सहायक होता है। सरकारी अधिकारी के बंगले और अमीर व्यापारी के महलनुमा आवास से लेकर श्रमिक की साधारण झोपड़ी तक, भवन सामाजिक संबंधों और पहचानों को कई प्रकार से परिलक्षित करते हैं।

 

 

★ पूर्व – औपनिवेशिक काल में क़स्बे और शहर :-

● औपनिवेशिक काल में शहरों के विकास का अन्वेषण करें, हमें ब्रिटिश शासन के पहले की शताब्दियों के शहरों पर नज़र डालनी चाहिए।

◆ क़स्बों को उनका चरित्र कैसे मिला?

● क़स्बों को सामान्यतः ग्रामीण इलाकों के विपरीत परिभाषित किया जाता था। वे विशिष्ट प्रकार की आर्थिक गतिविधियों और संस्कृतियों के प्रतिनिधि बन कर उभरे।

● लोग ग्रामीण अंचलों में खेती, जंगलों में संग्रहण या पशुपालन के द्वारा जीवन निर्वाह करते थे। इसके विपरीत क़स्बों में शिल्पकार, व्यापारी, प्रशासक तथा शासक रहते थे।

● क़स्बों का ग्रामीण जनता पर प्रभुत्व होता था और वे खेती से प्राप्त करों और अधिशेष के आधार पर फलते-फूलते थे। अकसर क़स्बों और शहरों की क़िलेबन्दी की जाती थी जो ग्रामीण क्षेत्रों से इनकी पृथकता को चिह्नित करती थी।

● फिर भी क़स्बों और गाँवों के बीच की पृथकता अनिश्चित होती थी। किसान तीर्थ करने के लिए लम्बी दूरियाँ तय करते थे और क़स्बों से होकर गुज़रते थे; वे अकाल के समय क़स्बों में जमा भी हो जाते थे।

● इसके अतिरिक्त लोगों और माल का क़स्बों से गाँवों की ओर विपरीत गमन भी था। जब क़स्बों पर आक्रमण होते थे तो लोग अकसर ग्रामीण क्षेत्रों में शरण लेते थे।

● व्यापारी और फेरीवाले क़स्बों से माल गाँव ले जाकर बेचते थे, जिसके द्वारा बाज़ारों का फैलाव और उपभोग की नयी शैलियों का सृजन होता था ।

● सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में मुग़लों द्वारा बनाए गए शहर जनसंख्या के केन्द्रीकरण, अपने विशाल भवनों तथा अपनी शाही शोभा व समृद्धि के लिए प्रसिद्ध थे।

● आगरा, दिल्ली और लाहौर शाही प्रशासन और सत्ता के महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे। मनसबदार और जागीरदार जिन्हें साम्राज्य के अलग-अलग भागों में क्षेत्र दिये गए थे, सामान्यतः इन शहरों में अपने आवास रखते थे इन सत्ता केन्द्रों : में आवास एक अमीर की स्थिति और प्रतिष्ठा का संकेतक था ।

● इन केंद्रों में सम्राट और कुलीन वर्ग की उपस्थिति के कारण वहाँ कई प्रकार की सेवाएँ प्रदान करना आवश्यक था। शिल्पकार कुलीन वर्ग के परिवारों के लिए विशिष्ट हस्तशिल्प का उत्पादन करते थे।

● ग्रामीण अंचलों से शहर के बाज़ारों में निवासियों और सेना के लिए अनाज लाया जाता था। राजकोष भी शाही राजधानी में ही स्थित था। इसलिए राज्य का राजस्व भी नियमित रूप से राजधानी में आता रहता था। सम्राट एक किलेबन्द महल में रहता था और नगर एक दीवार से घिरा होता था जिसमें अलग-अलग द्वारों से आने-जाने पर नियंत्रण रखा जाता था।

● नगरों के भीतर उद्यान, मस्जिदें, मन्दिर, मक़बरे, महाविद्यालय, बाज़ार तथा कारवाँ सराय स्थित होती थीं। नगर का ध्यान महल और मुख्य मस्जिद की ओर होता था ।

● दक्षिण भारत के नगरों जैसे मदुरई और काँचीपुरम् में मुख्य केन्द्र मन्दिर होता था। ये नगर महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र भी थे। धार्मिक त्योहार अकसर मेलों के साथ होते थे जिससे तीर्थ और व्यापार जुड़ जाते थे। सामान्यतः शासक धार्मिक संस्थानों का सबसे ऊँचा प्राधिकारी और मुख्य संरक्षक होता था। समाज और शहर में अन्य समूहों और वर्गों का स्थान शासक के साथ उनके संबंधों से तय होता था।

 

 

★ अठारहवीं शताब्दी में परिवर्तन:-

● यह सब अठारहवीं शताब्दी में बदलने लगा। राजनीतिक तथा व्यापारिक पुनर्गठन के साथ पुराने नगर पतनोन्मुख हुए और नए नगरों का विकास होने लगा।

● मुग़ल सत्ता के क्रमिक शरण के कारण ही उसके शासन से सम्बद्ध नगरों का अवसान हो गया। मुग़ल राजधानियों, दिल्ली और आगरा ने अपना राजनीतिक प्रभुत्व खो दिया।

● नयी क्षेत्रीय ताकतों का विकास क्षेत्रीय राजधानियों लखनऊ, हैदराबाद, सेरिंगपट्म, पूना (आज का पुणे), नागपुर, बड़ौदा तथा तंजौर (आज का तंजावुर ) – के बढ़ते महत्त्व में परिलक्षित हुआ। व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार तथा अन्य लोग पुराने मुग़ल केन्द्रों से इन नयी राजधानियों की ओर काम तथा संरक्षण की तलाश में आने लगे।

● कुछ स्थानीय विशिष्ट लोगों तथा उत्तर भारत में मुग़ल साम्राज्य से सम्बद्ध अधिकारियों ने भी इस अवसर का उपयोग ‘कस्बे’ और ‘गंज’ जैसी नयी शहरी बस्तियों को बसाने में किया।

● पुर्तगालियों ने 1510 में पणजी में, डचों ने 1605 में मछलीपट्नम में अंग्रेज़ों ने मद्रास में 1639 में तथा फ्रांसीसियों ने 1673 में पांडिचेरी (आज का पुदुचेरी) में व्यापारिक गतिविधियों में विस्तार के साथ ही इन व्यापारिक केंद्रों के आस-पास नगर विकसित होने लगे।

● अठारहवीं शताब्दी के अंत तक स्थल-आधारित साम्राज्यों का स्थान शक्तिशाली जल-आधारित यूरोपीय साम्राज्यों ने ले लिया। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्यवाद तथा पूँजीवाद की शक्तियाँ अब समाज के स्वरूप को परिभाषित करने लगी थीं।

 

 

 

★ शहरों के नाम :-

● मद्रास, बम्बई और कलकत्ता शब्द उन गाँवों के अंग्रेजी प्रभावित नाम हैं जहाँ अंग्रेजों ने सबसे पहले अपनी व्यापारिक चौकियाँ बनाई थीं। अब उन्हें चेन्नई, मुम्बई और कोलकाता कहा जाने लगा है।

 

★ औपनिवेशिक शहरों की पड़ताल :-  औपनिवेशिक रिकॉर्ड्स और शहरी इतिहास :-

● औपनिवेशिक शासन बेहिसाब आंकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित था। अंग्रेज़ों ने अपने व्यावसायिक मामलों को चलाने के लिए व्यापारिक गतिविधियों का विस्तृत ब्यौरा रखा था।

● बढ़ते शहरों में जीवन की गति और दिशा पर नज़र रखने के लिए वे नियमित रूप से सर्वेक्षण करते थे। सांख्यिकीय आँकड़े इकट्ठा करते थे और विभिन्न प्रकार की सरकारी रिपोर्टें प्रकाशित करते थे।

● प्रारंभिक वर्षों से ही औपनिवेशिक सरकार ने मानचित्र तैयार करने पर ख़ास ध्यान दिया। सरकार का मानना था कि किसी जगह की बनावट और भूदृश्य को समझने के लिए नक्शे ज़रूरी होते हैं। इस जानकारी के सहारे वे इलाके पर ज़्यादा बेहतर नियंत्रण कायम कर सकते थे।

● जब शहर बढ़ने लगे तो न केवल उनके विकास की योजना तैयार करने के लिए बल्कि व्यवसाय को विकसित करने और अपनी सत्ता मज़बूत करने के लिए भी नक्शे बनाये जाने लगे।

● शहरों के नक्शों से हमें उस स्थान पर पहाड़ियों, नदियों व हरियाली का पता चलता है। ये सारी चीजें रक्षा संबंधी उद्देश्यों के लिए योजना तैयार करने में बहुत काम आती हैं।

● इसके अलावा घाटों की जगह, मकानों की सघनता और गुणवत्ता तथा सड़कों की स्थिति आदि से इलाके की व्यावसायिक संभावनाओं का पता लगाने और कराधान (टैक्स व्यवस्था) की रणनीति बनाने में मदद मिलती है।

● उन्नीसवीं सदी के आखिर से अंग्रेजों ने वार्षिक नगर पालिका कर वसूली के ज़रिए शहरों के रखरखाव के वास्ते पैसा इकट्ठा करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं।

● टकरावों से बचने के लिए उन्होंने कुछ ज़िम्मेदारियाँ निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों को भी सौंपी हुई थीं। आंशिक लोक- प्रतिनिधित्व से लैस नगर निगम

●जैसे संस्थानों का उद्देश्य शहरों में जलापूर्ति, निकासी, सड़क निर्माण और स्वास्थ्य व्यवस्था जैसी अत्यावश्यक
सेवाएँ उपलब्ध कराना था।

● दूसरी तरफ़ नगर निगमों की गतिविधियों से नए तरह के रिकॉर्ड्स पैदा हुए जिन्हें नगर पालिका रिकॉर्ड रूम में सँभाल कर रखा जाने लगा।

● शहरों के फैलाव पर नजर रखने के लिए नियमित रूप से लोगों की गिनती की जाती थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक विभिन्न क्षेत्रों में कई जगह स्थानीय स्तर पर जनगणना की जा चुकी थी।

● अखिल भारतीय जनगणना का पहला प्रयास 1872 में किया गया। इसके बाद, 1881 से दशकीय ( हर 10 साल में होने वाली) जनगणना एक नियमित व्यवस्था बन गई। भारत में शहरीकरण का अध्ययन करने के लिए जनगणना से निकले आँकड़े एक बहुमूल्य स्रोत हैं।

 

 

★बदलाव के रुझान :-

● सन् 1800 के बाद हमारे देश में शहरीकरण की रफ्तार धीमी रही। पूरी उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के पहले दो दशकों तक देश की कुल आबादी में शहरी आबादी का हिस्सा बहुत मामूली और स्थिर रहा।

● 1900 से 1940 के बीच 40 सालों के दरमियान शहरी आबादी 10 प्रतिशत से बढ़ कर लगभग 13 प्रतिशत हो गई थी। अपरिवर्तनशीलता के नीचे विभिन्न क्षेत्रों में शहरी विकास के रुझानों में उल्लेखनीय उतार-चढ़ाव छिपे हुए हैं।

●छोटे कस्बों के पास आर्थिक रूप से विकसित होने के ज्यादा मौके नहीं थे। दूसरी तरफ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास तेजी से फैले और जल्दी ही विशाल शहर बन गए।

● नए व्यावसायिक एवं प्रशासनिक केंद्रों के रूप में इन तीन शहरों के पनपने के साथ-साथ कई दूसरे तत्कालीन शहर कमजोर भी पड़ते जा रहे थे।

● औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का केंद्र होने के नाते ये शहर भारतीय सूती कपड़े जैसे निर्यात उत्पादों के लिए संग्रह डिपो थे।

● इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद इस प्रवाह की दिशा बदल गई और इन शहरों में ब्रिटेन के कारखानों में बनी चीजें उतरने लगीं। भारत से तैयार माल की बजाय कच्चे माल का निर्यात होने लगा।

● इस आर्थिक गतिविधि का स्वरूप ऐसा था कि उसने औपनिवेशिक शहरों को देश के परंपरागत शहरों और क़स्बों से बिलकुल अलग ला खड़ा किया।

● 1853 में रेलवे की शुरुआत हुई। इसने शहरों की कायापलट कर दी। आर्थिक गतिविधियों का केंद्र परंपरागत शहरों से दूर जाने लगा क्योंकि ये शहर पुराने मार्गों और नदियों के समीप थे। हरेक रेलवे स्टेशन कच्चे माल का संग्रह केंद्र और आयातित वस्तुओं का वितरण बिंदु बन गया।

● उदाहरण के लिए, गंगा के किनारे स्थित मिर्ज़ापुर दक्कन से कपास तथा सूती वस्तुओं के संग्रह का केंद्र था जो बम्बई तक जाने वाली रेलवे लाइन के अस्तित्व में आने के बाद अपनी पहचान खोने लगा था।

● रेलवे नेटवर्क के विस्तार के बाद रेलवे वर्कशॉप्स और रेलवे कालोनियों की भी स्थापना शुरू हो गई। जमालपुर, वॉल्टेयर और बरेली जैसे रेलवे नगर अस्तित्व में आए।

 

 

★ भारत में शहरीकरण :- 1881-1942

 साल          कुल आबादी में शहरी आबादी का प्रतिशत

1891 :-      9.4

1901 :-     10.0

1911 :-       9.4

1921 :-      10.2

1931 :-     11.1

1941 :-     12.8

 

 

★ नए शहर कैसे थे?

● बंदरगाह, क्रिले और सेवाओं के केंद्र अठारहवीं सदी तक मद्रास, कलकत्ता और बम्बई महत्वपूर्ण बंदरगाह बन चुके थे। यहाँ जो आबादियाँ बसीं वे चीज़ों के संग्रह के लिए काफ़ी उपयोगी साबित हुईं।

● ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कारखाने (यानी वाणिज्यिक कार्यालय) इन्हीं बस्तियों में बनाए और यूरोपीय कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा के कारण सुरक्षा के उद्देश्य से इन बस्तियों की किलेबंदी कर दी।

● मद्रास में फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फ़ोर्ट विलियम और बम्बई में फ़ोर्ट, ये इलाके ब्रिटिश आबादी के रूप में जाने जाते थे। यूरोपीय व्यापारियों के साथ लेन-देन चलाने वाले भारतीय व्यापारी, कारीगर और कामगार इन क़िलों के बाहर अलग बस्तियों में रहते थे।

● यूरोपीयों और भारतीयों के लिए शुरू से ही अलग क्वार्टर बनाए गये थे। उस समय के लेखन में उन्हें “व्हाइट टाउन ” (गोरा शहर) और “ब्लैक टाउन” (काला शहर) के नाम से उद्धृत किया जाता था।

● राजनीतिक सत्ता अंग्रेजों के हाथ में आ जाने के बाद यह नस्ली फ़र्क़ और भी तीखा हो गया। उन्नीसवीं सदी के मध्य में रेलवे के फैलते नेटवर्क ने इन शहरों को शेष भारत से जोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि जहाँ से कच्चा माल और मज़दूर आते थे, ऐसे देहाती और दूर-दराज इलाक़े भी इन बंदरगाह शहरों से गहरे तौर पर जुड़ने लगे।

● क्योंकि कच्चा माल निर्यात के लिए इन शहरों में आता था और सस्ते श्रम की कोई कमी नहीं थी इसलिए वहाँ कारखानें लगाना आसान था। 1850 के दशक के बाद भारतीय व्यापारियों और उद्यमियों ने बम्बई में सूती कपड़ा मिलें लगाई। कलकत्ता के बाहरी इलाके में यूरोपीयों के स्वामित्व वाली जूट मिलें खोली गईं। यह भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास की शुरुआत थी ।

● हालाँकि कलकत्ता, बम्बई और मद्रास इंग्लिश कारखानों के लिए कच्चा माल भेजते थे और पूँजीवाद जैसी आधुनिक आर्थिक ताकतों के बल पर मजबूती से सामने आ चुके थे लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से फ़ैक्ट्री उत्पादन पर आधारित नहीं थी।

● इन शहरों की ज्यादातर कामकाजी आबादी उस श्रेणी में आती थी जिसे अर्थशास्त्री तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector) या सेवा क्षेत्र कहते हैं। उस समय यहाँ सही मायनों में केवल दो “ औद्योगिक शहर” थे। एक कानपुर और दूसरा जमशेदपुर । कानपुर में चमड़े की चीजें, ऊनी और सूती कपड़े बनते थे

●जबकि जमशेदपुर स्टील उत्पादन के लिए विख्यात था। भारत कभी भी एक आधुनिक औद्योगिक देश नहीं बन पाया क्योंकि पक्षपातपूर्ण औपनिवेशिक नीतियों ने हमारे औद्योगिक विकास को आगे नहीं बढ़ने दिया। कलकत्ता, बम्बई और मद्रास बड़े शहर तो बने लेकिन इससे औपनिवेशिक भारत की समूची अर्थव्यवस्था में कोई नाटकीय इजाफ़ा नहीं हुआ।

 

 

 

★ एक नया शहरी परिवेश :-

● औपनिवेशिक शहर नए शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिम्बित करते थे। राजनीतिक सत्ता और संरक्षण भारतीय शासकों के स्थान पर ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों के हाथ में जाने लगा।

● दुभाषिए, बिचौलिए, व्यापारी और माल आपूर्तिकर्ता के रूप में काम करने वाले भारतीयों का भी इन नए शहरों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान था। नदी या समुद्र के किनारे आर्थिक गतिविधियों से गोदियों और घाटियों का विकास हुआ।

●समुद्र किनारे गोदाम, वाणिज्यिक कार्यालय, जहाज़रानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ, यातायात डिपो और बैंकिंग संस्थानों की स्थापना होने लगी। कंपनी के मुख्य प्रशासकीय कार्यालय समुद्र तट से दूर बनाए गए।

● कलकत्ता में स्थित राइटर्स बिल्डिंग इसी तरह का एक दफ़्तर हुआ करती थी । यहाँ ” राइटर्स” का आशय क्लर्कों से था। यह कं ब्रिटिश शासन में नौकरशाही के बढ़ते कद का संकेत था। क़िले की चारदिवारी के आस-पास यूरोपीय व्यापारियों और एजेंटों ने यूरोपीय इम‍ शैली के महलनुमा मकान बना लिए थे।

●कुछ ने शहर की सीमा से सटे उपशहरी (Suburb, मुफ़स्सिल) इलाक़ों में बग़ीचा घर (Garden House) बना लिए थे। शासक वर्ग के लिए नस्ली विभेद पर आधारित क्लब, रेसकोर्स और रंगमंच भी बनाए गए।

 

 

★ पहला हिल स्टेशन :-

● छावनियों की तरह हिल स्टेशन (पर्वतीय सैरगाह) भी औपनिवेशिक शहरी विकास का एक खास पहलू थी। हिल स्टेशनों की स्थापना और बसावट का संबंध सबसे पहले ब्रिटिश सेना की जरूरतों से था।

● सिमला (वर्तमान शिमला) की स्थापना गुरखा युद्ध (1815-1816) के दौरान की गई। अंग्रेज मराठा ( 1818) युद्ध के कारण अंग्रेजों की दिलचस्पी माउंट आबू में बनी जबकि दार्जीलिंग को 1835 में सिक्किम के राजाओं से छीना गया था।

● ये हिल स्टेशन फ़ौजियों को ठहराने, सरहद की चौकसी करने और दुश्मन के ख़िलाफ़ हमला बोलने के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान थे।

● हिल स्टेशनों की जलवायु यूरोप की ठंडी जलवायु सेमिलती-जुलती थी इसलिए नये शासकों को वहाँ की आबो-हवा काफ़ी लुभाती थी। वायसराय अपने पूरे अमले के साथ हर साल गर्मियों में हिल स्टेशनों पर ही डेरा डाल लिया करते थे।

●1864 में वायसराय जॉन लॉरेंस ने अधिकृत रूप से अपनी काउंसिल शिमला में स्थानांतरित कर दी और इस तरह गर्म मौसम में राजधानियाँ बदलने के सिलसिले पर विराम लगा दिया।

● रेलवे के आने से ये पर्वतीय सैरगाहें बहुत तरह के लोगों की पहुँच में आ गईं। अब भारतीय भी वहाँ जाने लगे।

● उच्च और मध्यवर्गीय लोग, महाराजा, वकील और व्यापारी सैर-सपाटे के लिए इन स्थानों पर जाने लगे। वहाँ उन्हें शासक यूरोपीय अभिजन के निकट होने का संतोष मिलता था।

● हिल स्टेशन औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्त्वपूर्ण थे। इनके पास के इलाक़ों में चाय और कॉफ़ी बगानों की स्थापना से मैदानी इलाक़ों से बड़ी संख्या में मज़दूर वहाँ आने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि अब हिल स्टेशन केवल यूरोपीय लोगों की ही सैरगाह नहीं रह गए थे।

 

 

 

★ नए शहरों में सामाजिक जीवन:-

● अब लोग शहर के केंद्र से दूर जाकर भी बस सकते थे। समय के साथ काम की जगह और रहने की जगह, दोनों एक-दूसरे से अलग होते गए। घर से दफ़्तर या फैक्ट्री जाना एक नए क़िस्म का अनुभव बन गया।

● नयी जगह शहरों में नए सामाजिक समूह बने तथा लोगों की पुरानी पहचानें महत्त्वपूर्ण नहीं रहीं। तमाम वर्गों के लोग बड़े शहरों में आने लगे। क्लर्कों, शिक्षकों, वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, अकाउंटेंट्स की माँग बढ़ती जा रही थी।

● नतीजा, “मध्यवर्ग” बढ़ता गया। उनके पास स्कूल, कॉलेज और लाइब्रेरी जैसे नए शिक्षा संस्थानों तक अच्छी पहुँच थी। शिक्षित होने के नाते वे समाज और सरकार के बारे में अख़बारों, पत्रिकाओं और सार्वजनिक सभाओं में अपनी राय व्यक्त कर सकते थे।

● शहरों में मेहनतकश ग़रीबों या कामगारों का एक नया वर्ग उभर रहा था। ग्रामीण इलाक़ों के ग़रीब रोज़गार की उम्मीद में शहरों की तरफ़ भाग रहे थे। कुछ लोगों को शहर नए अवसरों का स्रोत दिखाई देते थे। कुछ को एक भिन्न जीवनशैली का आकर्षण खींच रहा था।

 

 

★ पृथक्करण, नगर नियोजन और भवन निर्माण :-

● यद्यपि मद्रास, कलकत्ता और बम्बई, तीनों औपनिवेशिक शहर पहले के भारतीय क़स्बों और शहरों से अलग थे लेकिन उनमें कुछ साझे तत्त्व थे और उनके भीतर कुछ अनूठी बातें पैदा हो चुकी थीं। इनकी जाँच करने पर औपनिवेशिक शहरों के बारे में हमारी समझ में निश्चय ही इज़ाफ़ा होगा।

 

◆ मद्रास में बसावट और पृथक्करण :-

● कंपनी ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र सबसे पहले पश्चिमी तट पर सूरत के सुस्थापित बंदरगाह को बनाया था। बाद में वस्त्र उत्पादों की खोज में अंग्रेज़ व्यापारी पूर्वी तट पर जा पहुँचे।

● 1639 में उन्होंने मद्रासपटम में एक व्यापारिक चौकी बनाई। इस बस्ती को स्थानीय लोग चेनापट्टनम कहते थे। कंपनी ने वहाँ बसने का अधिकार स्थानीय तेलुगू सामंतों, कालाहस्ती के नायकों से ख़रीदा था जो अपने इलाके में व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ाना चाहते थे।

● फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ प्रतिद्वंद्विता (1746-63) के कारण अंग्रेजों को मद्रास की किलेबंदी करनी पड़ी और अपने प्रतिनिधियों को ज्यादा राजनीतिक व प्रशासकीय जिम्मेदारियाँ सौंप दीं।

● 1761 में फ्रांसीसियों की हार के बाद मद्रास और सुरक्षित हो गया। वह एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक शहर के रूप में विकसित होने लगा। यहाँ अंग्रेजों का वर्चस्व और भारतीय व्यापारियों की कमतर हैसियत साफ़ दिखाई देती थी।

● फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज (सेंट जॉर्ज किला) व्हाइट टाउन का केंद्रक बन गया जहाँ ज्यादातर यूरोपीय रहते थे। दीवारों और बुर्जों ने इसे एक ख़ास क़िस्म की घेरेबंदी का रूप दे दिया था। किले के भीतर रहने का फ़ैसला रंग और धर्म के आधार पर किया जाता था।

 

 

★ कलकत्ता में नगर नियोजन :-

● आधुनिक नगर नियोजन की शुरुआत औपनिवेशिक शहरों से हुई। इस प्रक्रिया में भूमि उपयोग और भवन निर्माण के नियमन के ज़रिए शहरों में लोगों के जीवन को सरकार ने नियंत्रित करना शुरू कर दिया था।

● अंग्रेजों ने बंगाल में अपने शासन के शुरू से ही नगर नियोजन का कार्यभार अपने हाथों में क्यों ले लिया था। एक फ़ौरी वजह तो रक्षा उद्देश्यों से संबंधित थी।

● 1756 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर हमला किया और अंग्रेज़ व्यापारियों द्वारा माल गोदाम के तौर पर बनाए गए छोटे किले पर कब्जा कर लिया। ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारी नवाब की संप्रभुता पर लगातार सवाल उठा रहे थे।

● 1757 में प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की हार हुई। इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक ऐसा नया किला बनाने का फ़ैसला लिया जिस पर आसानी से हमला न किया जा सके।

● कलकत्ता को सुतानाती, कोलकाता और गोविंदपुर, इन तीन गाँवों को मिला कर बनाया गया था। कंपनी ने इन तीनों में सबसे दक्षिण में पड़ने वाले गोविंदपुर गाँव की ज़मीन को साफ करने के लिए वहाँ के व्यापारियों और बुनकरों को हटने का आदेश जारी कर दिया।

● नवनिर्मित फ़ोर्ट विलियम के इर्द-गिर्द एक विशाल जगह खाली छोड़ दी गई जिसे स्थानीय लोग मैदान या गारेर मठ कहने लगे थे। कलकत्ता में नगर नियोजन का इतिहास केवल फ़ोर्ट विलियम और मैदान के निर्माण के साथ पूरा होने वाला नहीं था ।

●  1798 में लॉर्ड वेलेज्ली गवर्नर जनरल बने। उन्होंने कलकत्ता में अपने लिए गवर्नमेंट हाउस के नाम से एक महल बनवाया।

 

 

★ बम्बई में भवन निर्माण :-

● शहरों में भव्य इमारतों के मोती टाँक दिए जाएँ। शहरों में बनने वाली इमारतों में क़िले, सरकारी दफ्तर, शैक्षणिक संस्थान, धार्मिक इमारतें, स्मारकीय मीनारें, व्यावसायिक डिपो, यहाँ तक कि गोदियाँ और पुल, कुछ भी हो सकता था।

● ये इमारतें शाही सत्ता, राष्ट्रवाद और धार्मिक वैभव जैसे विचारों का प्रतिनिधित्व भी करती थीं। आइए देखें कि बम्बई में इस सोच को अमली जामा किस तरह पहनाया गया।

● शुरुआत में बम्बई सात टापुओं का इलाका था। जैसे-जैसे आबादी बढ़ी, इन टापुओं को एक-दूसरे से जोड़ दिया गया ताकि ज़्यादा जगह पैदा की जा सके। इस तरह आखिरकार ये टापू एक-दूसरे से जुड़ गए और एक विशाल शहर अस्तित्व में आया। बम्बई औपनिवेशिक भारत की वाणिज्यिक राजधानी थी।

● पश्चिमी तट पर एक प्रमुख बंदरगाह होने के नाते यह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र था। उन्नीसवीं सदी के अंत तक भारत का आधा निर्यात और आयात बम्बई से ही होता था।

● व्यापार की एक महत्त्वपूर्ण वस्तु अफ़ीम थी। ईस्ट इंडिया कंपनी यहाँ से चीन को अफीम का निर्यात करती थी। भारतीय व्यापारी और बिचौलिये इस व्यापार में हिस्सेदार थे और उन्होंने बम्बई की अर्थव्यवस्था को मालवा, राजस्थान और सिंध जैसे अफीम उत्पादक इलाकों से जोड़ने में मदद दी।

● कंपनी के साथ यह गठजोड़ उनके लिए मुनाफे का सौदा था और इससे भारतीय पूँजीपति वर्ग का विकास हुआ। बम्बई के पूँजीपति वर्ग में पारसी, मारवाड़ी, कोंकणी मुसलमान, गुजराती बनिये, बोहरा, यहूदी और आर्मीनियाई, विभिन्न समुदायों के लोग शामिल थे।
★ इमारतें और स्थापत्य शैलियाँ क्या बताती हैं :-

● स्थापत्य शैलियों से अपने समय के सौंदर्यात्मक आदर्शों और उनमें निहित विविधताओं का पता चलता है। इमारतें उन लोगों की सोच और नज़र के बारे में भी बताती हैं जो उन्हें बना रहे थे।

● इमारतों के ज़रिए सभी शासक अपनी ताकत का इज़हार करना चाहते हैं। इस प्रकार एक ख़ास वक़्त की स्थापत्य शैली को देखकर हम यह समझ सकते हैं कि उस समय सत्ता को किस तरह देखा जा रहा था।

● इमारतों और उनकी विशिष्टताओं ईंट-पत्थर, – खम्भे और मेहराब, आसमान छूते गुम्बद या उभरी हुई छतें – के ज़रिए किस प्रकार अभिव्यक्त होती थी।

 

 

 

 

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