अधयाय 6 : मृदा

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मृदा

मृदा भू-पर्पटी की सबसे महत्त्वपूर्ण परत है। यह एक मूल्यवान संसाधन है। हमारा अधिकतर भोजन और वस्त्र, मिट्टी में उगने वाली भूमि-आधारित फसलों से प्राप्त होता है।

मृदा का विकास हजारों वर्षों में होता है। अपक्षय और क्रमण के विभिन्न कारक जनक सामग्री पर कार्य करके मृदा की एक पतली परत का निर्माण करते हैं।

मृदा शैल, मलवा और जैव सामग्री का सम्मिश्रण होती है जो पृथ्वी की सतह पर विकसित होते हैं। मृदा- निर्माण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक हैं- उच्चावच, जनक सामग्री, जलवायु, वनस्पति तथा अन्य जीव रूप और समय। मृदा के घटक खनिज कण. ह्यूमस, जल तथा वायु होते हैं। इनमें से प्रत्येक की वास्तविक मात्रा मृदा के प्रकार पर निर्भर करती है

 

संस्तर

यदि हम भूमि पर एक गड्ढा खोदें और मृदा को देखें तो वहाँ हमें मृदा की तीन परतें दिखाई देती हैं, जिन्हें संस्तर कहा जाता है।

‘क’ संस्तर सबसे ऊपरी खंड होता है, जहाँ पौधों की वृद्धि के लिए अनिवार्य जैव पदार्थों का खनिज पदार्थ, पोषक तत्त्वों तथा जल से संयोग होता है।

“ख” संस्तर “क” व “ग” के बीच संक्रमण खंड होता है ग” संस्तर की रचना ढीली जनक सामग्री से होता है। यह परत मृदा निर्माण की प्रक्रिया में प्रथम अवस्था होती है

 

 

 मृदा का वर्गीकरण

 

भारत में भिन्न-भिन्न प्रकार के उच्चावच भूआकृति, जलवायु परिमंडल तथा वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। इहोंने भारत में अनेक प्रकार की मिट्टियों के विकास में योगदान दिया है प्राचीन काल में मृदा को दो मुख्य वर्गों में बाँटा जाता था- उर्वर, जो उपजाऊ थी और ऊसर, जो अनुर्वर थी। सन् 1956 में स्थापित भारत के मृदा सर्वेक्षण विभाग ने दामोदर घाटी जैसे कुछ चुने हुए क्षेत्रों में मृदाओं के व्यापक अध्यापन किए

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आई.सी.ए.आर.) के तत्त्वाधान में राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण ब्यूरो तथा भूमि उपयोग आयोजन एवं संस्थान ने भारत की मृदाओं पर बहुत से अध्ययन किए।

 

 

भारत की मिट्टियों को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:

(i) जलोढ़ मृदाएँ

(ii) काली मृदाएँ

(iii) लाल और पीली मृदाएँ

(iv) लैटेराइट मृदाएँ

(v) शुष्क मृदाएँ

(vi) लवण मृदाएँ

(vii) पीटमय मृदाएँ

(viii) वन मृदाएँ

 

 

 

जलोढ़ मृदाएँ

जलोढ़ मृदाएँ उत्तरी मैदान और नदी घाटियों के विस्तृत भागों में पाई जाती हैं। ये मृदाएँ देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 40 प्रतिशत भाग को ढके हुए हैं। ये निक्षेपण मृदाएँ हैं जिन्हें नदियों और सरिताओं ने वाहित तथा निक्षेपित किया है।

जलोढ़ मृदाएँ गठन में बलुई दुमट से चिकनी मिट्टी की प्रकृति की पाई जाती हैं। सामान्यतः इनमें पोटाश की मात्रा अधिक और फ़ॉस्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है।

जलोढ़ मृदा को दो भागों में बाँटा जा सकता है

खादर
बांगर

खादर और बांगर मृदाओं में कैल्सियमी संग्रथन अर्थात् कंकड़ पाए जाते हैं। निम्न तथा मध्य गंगा के मैदान और ब्रह्मपुत्र घाटी में ये मृदाएँ अधिक दुमटी और मृण्मय हैं। जलोढ़ मृदाओं का रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है। जलोढ़ मृदाओं पर गहन कृषि की जाती है।

 

 

 

काली मृदाएँ

इन मृदाओं को ‘रेगर’ तथा ‘कपास वाली काली मिट्टी’ भी कहा जाता है। आमतौर पर काली मृदाएँ मृण्मय, गहरी और अपारगम्य होती हैं। ये मृदाएँ गीले होने पर फूल जाती हैं और चिपचिपी हो जाती हैं। सूखने पर ये सिकुड़ जाती हैं। इस प्रकार शुष्क ऋतु में इन मृदाओं में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। इस समय ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इनमें ‘स्वतः जुताई’ हो गई हो। अवशोषण और नमी के क्षय की इस विशेषता के कारण काली मृदा में एक लम्बी अवधि तक नमी बनी रहती है।

काली मृदाएँ दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पाई जाती हैं। महाराष्ट्र के कुछ भाग गुजरात, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल हैं गोदावरी और कृष्णा नदियों के ऊपरी भागों काली मृदाओं में चूने लौह, मैग्नीशिया तथा ऐलुमिना के तत्त्व काफी मात्रा में पाए जाते हैं। इनमें पोटाश की मात्रा भी पाई जाती है।

 

 

 

लाल और पीली मृदाएँ

इस मृदा का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है। जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई पड़ती है। महीने कणों वाली लाल और पीली मृदाएँ सामान्यतः उर्वर होती हैं। इनमें सामान्यतः नाइट्रोजन, फ़ॉस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है।

इस मृदा का विस्तार दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ रवेदार आग्नेय चट्टानें पाई जाती हैं। पीली और लाल मृदाएँ ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों और मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पाई जाती है।

 

 

लैटेराइट मृदाएँ

लैटेराइट एक लैटिन शब्द ‘लेटर’ से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ईंट होता है। लैटेराइट मृदाएँ उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। ये मृदाएँ उष्ण कटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तीव्र निक्षालन का परिणाम हैं।

वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और अल्यूमीनियम के यौगिक से भरपूर मृदाएँ शेष रह जाती हैं

इन मृदाओं में जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, फ़ॉस्फ़ेट और कैल्सियम की कमी होती. लौह- ऑक्साइड और पोटाश की अधिकता होती है। परिणामस्वरूप लैटेराइट मृदाएँ कृषि के लिए पर्याप्त उपजाऊ नहीं हैं। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लाल लैटेराइट मृदाएँ अधिक उपयुक्त हैं। लैटराइट मृदाएँ सामान्यतः कर्नाटक केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश तथा ओडिशा और असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं।

 

 

 

शुष्क मृदाएँ

शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है। ये सामान्यतः संरचना से बलुई और प्रकृती से लवणीय होती हैं। शुष्क जलवायु, उच्च तापमान और तीव्रगति से वाष्पीकरण के कारण इन मृदाओं में नमी और ह्यूमस कम होते हैं। इनमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फ़ॉस्फ़ेट सामान्य मात्रा में होती है। नीचे की ओर चूने की मात्रा के बढ़ते जाने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ो की परतें पाई जाती हैं।

ये मृदाएँ विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में अभिलक्षणिक रूप से विकसित हुई हैं। ये मृदाएँ अनुर्वर हैं क्योंकि इनमें ह्यूमस और जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं।

 

 

 

 लवण मृदाएँ

ऐसी मृदाओं को ऊसर मृदाएँ भी कहते हैं। लवण मृदाओं में सोडियम, पौटेशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। अतः ये अनुर्वर होती हैं और इनमें किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं उगती ।

इनकी संरचना बलुई से लेकर दुमटी तक होती है। इनमें नाइट्रोजन और चूने की कमी होती है। लवण मृदाओं का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिमी बंगाल के सुंदर वन क्षेत्रों में है। अत्यधिक सिंचाई वाले गहन कृषि के क्षेत्रों में, विशेष रूप से हरित क्राँति वाले क्षेत्रों में उपजाऊ जलोढ़ मृदाएँ भी लवणीय होती जा रही हैं। शुष्क जलवायु वाली दशाओं में अत्यधिक सिंचाई केशिका क्रिया को बढ़ावा देती है।

 

इसके परिणामस्वरूप नमक ऊपर की ओर बढ़ता है और मृदा की सबसे ऊपरी परत में नमक जमा हो जाता है। इस प्रकार के क्षेत्रों में विशेष रूप में पंजाब और हरियाणा में मृदा की लवणता की समस्या से निबटने के लिए जिप्सम डालने की सलाह दी जाती है।

 

 

 

पीटमय मृदाएँ

ये मृदाएँ भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता से युक्त उन क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी हो। इन मृदाओं में जैव पदार्थों की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक होती है। ये मृदाएँ सामान्यतः गाढ़े और काले रंग की होती हैं। अनेक स्थानों पर ये क्षारीय भी हैं। ये मृदाएँ अधिकतर बिहार के उत्तरी भाग, उत्तराचंल के दक्षिणी भाग, पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों, उड़ीसा और तमिलनाडु में पाई जाती हैं

 

 

वन मृदाएँ

ये मृदाएँ पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में ही बनती हैं। इन मृदाओं का निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता है। पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन और संरचना बदलती रहती हैं। घाटियों में ये दुमटी और पांशु होती हैं तथा ऊपरी ढालों पर ये मोटे कणों वाली होती हैं। ये अम्लीय और कम ह्यूमस वाली होती हैं। निचली घाटियों में पाई जाने वाली मृदाएँ उर्वर होती हैं।

 

 

मृदा अवकर्षण

मृदा अवकर्षण का अर्थ होता है, मृदा की उर्वरता के ह्रास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसमें मृदा का पोषण स्तर गिर जाता है तथा अपरदन और दुरुपयोग के कारण मृदा की गहराई कम हो जाती है

 

भारत में मृदा संसाधनों के क्षय का मुख्य कारक मृदा अवकर्षण है।

 

मृदा अपरदन

मृदा अपरदन: बहते हुए जल, हवा तथा जीव-जन्तुओं व मानव की क्रियाओं द्वारा भू-पटल की ऊपरी उपजाऊ मिट्टी की परत के कट जाने और उड़कर अन्यत्र रूपान्तरित हो जाने को मिट्टी का कटाव या मृदा अपरदन कहा जाता है।

 

मृदा अपरदन के दो प्रकार होते हैं- जल अपरदन एवं पवन अपरदन

 

 

मृदा अपरदन का क्या कारण

1 वृक्षों का अविवेकपूर्ण कटाव
2 वानस्पतिक फैलाव का घटना
3 वनों में आग लगना
4 भूमि को बंजर/खाली छोड़कर जल व वायु अपरदन के लिए प्रेरित करना|
5 मृदा अपरदन को त्वरित करने वाली फसलों को उगाना
6 त्रुटिपूर्ण फसल चक्र अपनाना
क्षेत्र ढलान की दिशा में कृषि कार्य करना|
7 सिंचाई की त्रुटिपूर्ण विधियाँ अपनाना

 

मृदा अपरदन रोकने के उपाय

1 पट्टी कृषि
2 समोच्च जुताई द्वारा

3 सीढ़ीदार खेती करके

4 अति पशुचारण को रोकना

5 वृक्षारोपण करके

6 सिंचाई की सही तकनीकों का इस्तेमाल करके

7 खेतो मे बाधिकाएँ बनाकर नालीदार अपरदन को रोकना

 

 

 मृदा संरक्षण

मृदा अपरदन की मात्रा को कम करने के लिए किए जाने वाले प्रभावशाली कार्य मृदा संरक्षण कहलाता है। इस क्रिया के अंतर्गत विविध प्रकार से मृदा की उर्वरता को बनाए रखने के प्रयास किए जाते हैं एवं मृदा को एक स्थान पर स्थिर करने की कोशिश की जाती है। मृदा संरक्षण का मुख्य उद्देश्य मिट्टी के उत्पादन की क्षमता में वृद्धि करना एवं मिट्टी के कटाव को रोकना होता है। मृदा एक बहुत ही महत्वपूर्ण संसाधन है जो विभिन्न प्रकार से जीव-जंतुओं का पालन-पोषण करती है। बीते वर्षों में मृदा अपरदन की प्रक्रिया ने प्रकृति को कई प्रकार से नुकसान पहुंचाया है जिसके परिणाम स्वरूप भारत मे कृषि पर इसके दूरगामी प्रभाव पड़े है ।

 

 

मृदा संरक्षण की आवश्यक

पृथ्वी पर जीवन के लिए मिट्टी बहुत ही उपयोगी होती है। मिट्टी का निर्माण खनिज पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ एवं वायु के माध्यम से होता है जिसमें पेड़-पौधों का विकास होता है। जिस प्रकार पृथ्वी पर जीवन के लिए पानी की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मिट्टी की भी आवश्यकता होती है। मिट्टी में सैकड़ों जीव-जंतु पनपते हैं जो पृथ्वी के वातावरण को शुद्ध रखने के लिए उत्तरदायी होते हैं। इतना ही नहीं मृदा को विभिन्न प्रकार के जीवित कारकों का स्रोत भी माना जाता है।

 

 

मृदा संरक्षण करने के उपाय

समोच्च रेखा के अनुसार मेढ़बंदी, समोच्च रेखीय सीढ़ीदार खेत बनाना, नियमित वानिकी, नियंत्रित चराई, आवरण फसलें उगाना, मिश्रित खेती तथा शस्यावर्तन आदि उपचार के कुछ ऐसे तरीके हैं जिनका उपयोग मृदा अपरदन को कम करने के लिए प्रायः किया जाता है।

 

अवनालिका अपरदन को रोकने तथा उनके बनने पर नियंत्रण के प्रयत्न किए जाने चाहिए। अगुंल्याकार अवनालिकाओं को सीढ़ीदार खेत बनाकर समाप्त किया जा सकता है। केंद्रीय शुष्क भूमि अनुसंधान संस्थान (सीएजेडआरआई) ने पश्चिमी राजस्थान में बालू के टीलों को स्थिर करने के प्रयोग किए हैं।

भारत सरकार द्वारा स्थापित केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड ने देश के विभिन्न भागों में मृदा संरक्षण के लिए अनेक योजनाएँ बनाई हैं। ये योजनाएँ जलवायु की दशाओं, भूमि संरूपण तथा लोगों के सामाजिक व्यवहार पर आधारित हैं।

 

 

 

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