अध्याय 1: संसाधन एवं विकास

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संसाधन

एक वस्तु जो हमारे आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रयुक्त की जा सकती है, और जिसको बनाने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध हो जो आर्थिक रूप से संभाव्य और सांस्कृतिक रूप से माने हैं एक संसाधन है। मानव प्रौधोगिकी द्वारा प्रकृति के साथ क्रिया करते हैं और अपनी आर्थिक विकास गति को तेज करने के लिए संस्थाओं का निर्माण करते हैं। 

मानव संसाधनों का महत्वपूर्ण हिस्सा है। पर्यावरण में पाए जाने वाले पदार्थों को संसाधनों में परिवर्तित करते हैं तथा उन्हें प्रयोग करते हैं

 

इन संसाधनों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है

 

संसाधनों के प्रकार

 

उत्पत्ति के आधार पर

1 जैव संसाधन – इन संसाधनों की प्राप्ति जीवमंडल से होती है और इनमें जीवन व्याप्त है जैसे :मनुष्य ,वनस्पति जात, प्राणी जात, मध्य जीवन पशुधन आदि।

2 अजैविक संसाधन –  सारे संसाधन जो निर्जीव वस्तुओं से बने हैं, अजैव संसाधन कहलाते हैं उदाहरण: चट्टान और धातु इत्यादि। 

 

समाप्यत के आधार पर

1 नवीकरणीय योग्य संसाधन –  वे संसाधन जो भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा नवीकृत या पुनः उत्पन्न किये जा सकता है जैसे : सौर तथा पवन ऊर्जा, जल, वन

2 अनवीकरण योग्य संसाधन  – इन संसाधनों का विकास एक लंबे भूवैज्ञानिक अंतराल में होता है, खनिज और जीवाश्म ईंधन इस प्रकार के संसाधन के उदाहरण है, इनके बनने में लाखों वर्ष लग जाते हैं इनमें से कुछ संसाधन जैसे – धातु चक्रीय है और कुछ संसाधन जैसे , जीवाश्म ईंधन सक्रिय है, वह एक बार के प्रयोग के बाद खत्म हो जाते हैं। 

 

 स्वामित्व के आधार पर

व्यक्तिगत संसाधन – वे संसाधन जिसमें किसी एक व्यक्ति का स्वामित्व होता है व्यक्तिगत संसाधन कहलाते हैं,  जैसे: कि बहुत सारे किसानों के पास भूमि होती है और वह उसके बदले सरकार को कर चूकते हैं

सामुदायिक स्वामित्व वाले संसाधन
यह संसाधन समुदाय के सभी व्यक्तियों को उपलब्ध होते हैं गांव की शमिलत भूमि, तालाब, कुएं इत्यादि और नगरीय क्षेत्रों में सार्वजनिक पार्क, पिकनिक स्थल और खेल के मैदान। 

 

 राष्ट्रीय संसाधन –  तकनीकी तौर पर देश में पाए जाने वाले सारे संसाधन राष्ट्रीय हैं। देश की सरकार को कानूनी अधिकार है कि वह व्यक्तिगत संसाधनों को भी आम जनता के हित में अधिग्रहित कर सकती है।  उदाहरण सारे खनिज पदार्थ जल संसाधन वन वन्य जीव राजनीतिक सीमाओं के अंदर सारी भूमि और 12 समुद्री मील (22 किलोमीटर ) तक महासागर क्षेत्र व इस में पाए जाने वाले संसाधन राष्ट्रीय संपदा है। 

 

अंतर्राष्ट्रीय संसाधन
कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं संसाधनों को नियंत्रित करती हैं। तटरेखा से 200 समुद्री मील की दूरी से परे खुले महासागरीय संसाधन पर किसी देश का अधिकार नहीं है। इन संसाधनों को अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं की सहमति के बिना इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। 

 

 

 विकास के आधार पर संसाधन

संभावी संसाधन
यह वे संसाधन है जो किसी प्रदेश में विद्यमान होते हैं परंतु इनका उपयोग नहीं किया गया है। उदाहरण के तौर पर भारत के पश्चिम भाग, विशेषकर राजस्थान और गुजरात में पवन और सौर ऊर्जा अपार सम्भावना है, 

 

विकसित संसाधन
संसाधन जिन का सर्वेक्षण किया जा चुका है और उनके उपयोग की गुणवत्ता और मात्रा निर्धारित की जा चुकी है, विकसित संसाधन कहलाते हैं

 

 भंडार
पर्यावरण में उपलब्ध वह पदार्थ जो मानव की आवश्यकता की पूर्ति कर सकते हैं परंतु उपयुक्त प्रौद्योगिकी के अभाव में उसकी पहुंच से बाहर हैं, भंडार में शामिल हैं । उदाहरण के लिए , जल में मौजूद गैसे, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का योगिक है,  हाइड्रोजन ऊर्जा का मुख्य स्रोत बन सकता है। परन्तु हमारे पास इस उद्देश्य से, इसका प्रयोग करने के लिए ह्मारे पास उन्नत तकनीक ज्ञान नहीं है। 

 

संचित कोष
यह संसाधन भंडार का ही हिस्सा है, जिन्हें उपलब्ध तकनीकी ज्ञान की सहायता से प्रयोग में लाया जा सकता है, परंतु इनका उपयोग अभी आरंभ नहीं हुआ है। इनका उपयोग भविष्य में आवश्यकता पूर्ति के लिए किया जा सकता है। नदियों के जल को विधुत पैदा करने में प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु वर्तमान समय में इसक उपयोग सीमित पैमाने पर हो रहा है। 

 

 

 

 संसाधनों का विकास

संसाधन जिस प्रकार मनुष्य के जीवन यापन के लिए अति आवश्यक है उसी प्रकार जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए भी महत्वपूर्ण है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि संसाधन प्रकृति की देन है परिणाम स्वरूप मानव ने इसका अंधाधुंध उपयोग किया है, जिससे निम्नलिखित मुख्य समस्याएं पैदा हो गई है।

1 ) कुछ व्यक्तियों के लालच से संसाधनों का ह्रास हुआ है

2 ) संसाधन समाज के कुछ ही लोगों के हाथ में आ गए हैं, जिससे समाज दो हिस्सों में बट गया है अमीर और गरीब 

3 ) संसाधन के अंधाधुन शोषण से वैश्विक पारिस्थितिकी संकट पैदा हो गया है। जैसे : पर्यावरण प्रदूषण और भूमि निम्नीकरण , भूमंडलीय ताप 

 

 

 

सतत पोषणीय विकास

सतत पोषणीय आर्थिक विकास का अर्थ है कि विकास पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाए हो और वर्तमान विकास की प्रक्रिया भविष्य की पीढ़ी की आवश्यकता की आवेला ना करें।

 

 

 

संसाधन नियोजन

संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए नियोजन एक सर्वमान्य रणनीति है। इसीलिए भारत जैसे देश में जहां संसाधनों की उपलब्धता में बहुत अधिक व्यवस्था है, यह और भी महत्वपूर्ण है। यहां ऐसे प्रदेश भी हैं जहां एक तरह के संसाधनों की प्रचुरता है, परंतु दूसरे तरह के संसाधनों की कमी है। इसीलिए राष्ट्रीय प्रादेशिक और स्थानीय स्तर पर संतुलित संसाधन नियोजन की आवश्यकता है।

 

 

 भारत में संसाधन नियोजन

संसाधन नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें निम्नलिखित सोपान है

1 देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान कर उनकी तालिका बनाना। इस कार्य में क्षेत्रीय सर्वेक्षण, मानचित्र बनाना और संसाधनों को गुणात्मक एवं मात्रात्मक अनुमान लगाना व् मापन करना है। 

2 संसाधन विकास योजनाएं लागू करने के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी, कौशल और संस्थान नियोजन ढांचा तैयार करना

3 संसाधन विकास योजनाओं और राष्ट्रीय विकास योजना में समन्वय स्थापित करना।

 

 

संसाधनों का संरक्षण

संसाधन किसी भी तरह के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परन्तु संसाधनों का विवेकहीन उपभोग और अति उपयोग के कारण कई सामाजिक आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इन समस्याओं से बचाव के लिए विभिन्न स्तरों पर संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है।

गांधीजी ने संसाधनों के संरक्षण पर अपनी चिंता इन शब्दों में व्यक्त की है-  “हमारे पास हर व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति के लिए बहुत कुछ है लेकिन किसी के लालच की संतुष्टि के लिए नहीं अर्थात हमारे पास पेट भरने के लिए बहुत है लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं”

 

 

 

भू संसाधन

भूमि एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है, प्राकृतिक वनस्पति, वन्यजीव, मानव जीवन आर्थिक क्रियाएं परिवहन तथा संचार व्यवस्थाएं भूमि पर ही आधारित है। परंतु भूमि एक सीमित संसाधन है, इसलिए उपलब्ध भूमिका विभिन्न उद्देश्यों के लिए उपयोग सावधानी और योजनाबद्ध तरीके से होना चाहिए।

 

भारत में भूमि पर विभिन्न प्रकार की भू आकृतियों जैसे पठार पर्वत मैदान में पाए जाते हैं। लगभग 43% भूभाग मैदान है जो कृषि और उद्योग के विकास के लिए सुविधाजनक है। पर्वत पूरे भूभाग के 30% भाग का विस्तृत है, देश के क्षेत्रफल का लगभग 27% हिस्सा पठारी क्षेत्र है। इस क्षेत्र में खनिजो, जीवाश्म ईंधन और वन का अपर संचय कोष है।

 

भू उपयोग

भू- संसाधन का उपयोग निम्नलिखित उद्देश्य से किया जाता है – 

 

1 वन

2 कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि
A बंजर तथा कृषि अयोग्य भूमि
B गैर कृषि परियोजना में लगाई गई भूमि – जैसे इमारतें, सड़के, उद्योग इत्यादि।

 

3 परती भूमि के अतिरिक्त अन्य कृषि अयोग्य भूमि

अ ) इसके अंतर्गत स्थाई चारागाहे अन्य गोचर भूमि

ब ) विविध वृक्षों, वृक्ष फसलों,  तथा उपवनों के अधीन भूमि ( जो शुद्ध बोए गए क्षेत्र में शामिल नहीं है )

स ) कृषि योग्य बंजर भूमि जहां 5 से अधिक वर्षों से खेती न की गई हो। 

 

4 परती भूमि

अ)  वर्तमान परती (जहां एक कृषि वर्ष या उससे कम समय से खेती नहीं गई हो)

 

ब ) वर्तमान प्रति भूमि के अतिरिक्त अन्य परती भूमि या पुरातन परती ( जहां एक से पांच कृषि वर्षों से खेती न की गई हो )

 

5 शुद्ध (निवल ) बोया गया क्षेत्र
वह भूमि जिस पर फसले उगाई व काटी जाती है वह शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र कहलाता है। एक कृषि वर्ष में एक बार से अधिक बोए गए क्षेत्र को शुद्ध बोए गया क्षेत्र में जोड़ दिया जाता है वह सकल कृषि क्षेत्र कहलाता है।

 

 

भारत में भू उपयोग प्रारूप

भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.89 वर्ग किलोमीटर है । परंतु इसके 93% भाग में ही भू-उपयोग आंकड़े उपलब्ध हैं क्योकि पूर्वोत्तर प्रांतों में असम को छोड़कर अन्य प्रांतों के सूचित क्षेत्र के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।

1 ) भारत के कुल सूचित क्षेत्र के लगभग 54% हिस्से पर ही खेती हो सकती है

शुद्ध बोए गए क्षेत्र का प्रतिशत भी विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है, पंजाब और हरियाणा में 80% भूमि पर खेती होती है , परंतु अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 10% से भी कम क्षेत्र बोया जाता है। 

राष्ट्रीय वन नीति 1952 द्वारा निर्धारित वनों के अंतर्गत 33 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र अवांछित है। 

 

 

भूमि निम्नीकरण और संरक्षण उपाय

हम भोजन मकान और कपड़े कि अपनी मूल आवश्यकताओं का 95% भाग भूमि से प्राप्त करते हैं

इस समय भारत में लगभग 13 करोड हेक्टेयर भूमि निम्नीकरण है। इसमें से लगभग 28% भूमि निम्नीकृत वनों के अंतर्गत है, 56% क्षेत्र जल अपरदित है और शेष क्षेत्र लवणीय और क्षारीय है। कुछ मानव क्रियाओं जैसे वनोन्मूलन, अति पशुचारण, खनन ने भी भूमि का निम्नीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

 

 

 

 मृदा संसाधन

मिट्टी अथवा मृदा सबसे महत्वपूर्ण नवीकरणीय योग्य प्राकृतिक संसाधन है। कुछ सेंटीमीटर गहरी मृदा बनने में लाखों वर्ष लग जाते हैं मृदा बनने की प्रक्रिया में उच्चावच, जनक शैल अथवा संस्तर शैल, जलवायु ,वनस्पति और अन्य जैव पदार्थ और समय महत्वपूर्ण कारक है। प्रकृति के अनेक तत्वों जैसे तापमान परिवर्तन, बहते जल की क्रिया, पवन, हिमनदी और अपघटन क्रिया आदि मिलता बनने की प्रक्रिया में योगदान देती है। 

 

 

 मृदा का वर्गीकरण

भारत में अनेक प्रकार के उच्चावच, भू आकृतियां, जलवायु, और वनस्पति पाई जाती है। इस कारण अनेक प्रकार की मृदाएँ  विकसित हुई है। 

 

 जलोढ़ मृदा
यह मृदा विस्तृत रूप से फैली हुई है और यह देश की महत्वपूर्ण मिलता है। संपूर्ण उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बना है। यह मृदा हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी तंत्र सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा लाए गए निक्षेप से बनती है। एक संकरे गलियारे के द्वारा यह मृदाएँ राजस्थान और गुजरात तक फैली है। पूर्वी तटीय मैदान, विशेषकर महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टा में जलोढ़ मृदा से बने हैं ।

कणों के आकार या घटकों के अलावा मृदा की पहचान उनकी आयु से भी होती है। आयु के आधार पर जलोढ़ मृदा को दो प्रकार में है ।

1, पुराने जलोढ़ या बांगर
बांगर मृदा में कंकर ग्रंथियों की मात्रा ज्यादा होती है

2, नया जलोढ़ या खादर – इस मृदा में ज्यादा महीन कण पाए जाते हैं

जलोढ़ मृदा बहुत उपजाऊ होती है। क्योंकि इसमें पोटेशियम, फास्फोरस, चुनायुक्त होती है, जो गन्ने, चावल, गेहूं, अनाज, दलहन फसलों की खेती के लिए उपयुक्त मानी गई है ।

 

 काली मृदा

इन मृदाओ का रंग काला है और  इन्हें रेगर मृदा भी कहा जाता है। काली मृदा कपास की खेती के लिए उपयुक्त समझी जाती है। इसे  काली कपास मृदा के नाम से भी जाना जाता है, इस प्रकार की मृदा दक्कन पठार क्षेत्र के उत्तरी पश्चिमी भाग में पाई जाती है। और लावा जनक शैलो से बनी है। यह मृदाए  महाराष्ट्र, सौराष्ट्र,  मालवा, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ के पठार में पाई जाती है और दक्षिणी पूर्वी दिशा में गोदावरी और कृष्णा नदियों की घाटियों तक फैली है ।

1 ) इस मृदा में कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूने जैसे पौष्टिक तत्व की मात्रा पाई जाती है परन्तु इस में फास्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है।  

2 ) गर्म और शुष्क मौसम में इन मृदा में गहरी दरारे पड़ जाती हैं जिससे इनमे अच्छी तरह वायु मिश्रण हो जाता है। गीली होने पर ये मृदा चिपचिपी हो जाती है।  

 

 

 लाल और पीली मृदा

लाल मृदा दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में रवेदार आग्नेय चट्टानों पर कम वर्षा वाले भागों में विकसित हुई है।  यह मृदा ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट में पहाड़ी पद पर पाई जाती है। 

इन मृदा का लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लौह धातु के प्रसार के कारण होता है इनका पीला रंग इनमें जलयोजन के कारण होता है। 

 

 

लेटराइट मृदा
लेटराइट शब्द ग्रीक भाषा के शब्द लेटर से लिया गया है जिसका अर्थ है ईट।  लेटराइट मृदा का निर्माण उष्णकटिबंधीय तथा उपोष्ण कटिबंध जलवायु क्षेत्रों में आद्र तथा शुष्क ऋतुओ के एक के बाद एक आने के कारण होता है।

यह भारी वर्षा से अत्यधिक निक्षालन का परिणाम है । लेटराइट मृदा अधिकतर गहरी तथा अम्लीय होती है।  इसमें सामान्यता: पौधों के पोषक तत्वों की कमी होती है।  यह अधिकतर दक्षिणी राज्य, महाराष्ट्र के पश्चिम क्षेत्रों, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के कुछ भागों तथा उत्तर पूर्वी प्रदेशों में पाई जाती है। 

इस मिट्टी में पर्वतीय और सदाबहार वन मिलते हैं वहां इसमें ही हयूमस पर्याप्त रूप से पाया जाता है,लेकिन विरल वनस्पति और अर्ध शुष्क पर्यावरण में इसमें ह्यूमस की मात्रा कम पाई जाती है। इन मृदाओ पर कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में चाय और कोफ़ी उगाई जाती है। तमिलनाडु ,आंध्र प्रदेश और केरल की लाल लेटेराइट मृदा काजू की फसल के लिए अधिक उपयुक्त है। 

 

 

 मरुस्थलीय मृदा

मरुस्थलीय मृदा ओं का रंग लाल और भूरा होता है।  यह मृदा आम तौर पर रेतीली और लवणीय होती है। 

शुष्क जलवायु और उच्च तापमान के कारण जलवाष्प दर अधिक है और मृदाओ में ह्यूमस और नमी की मात्रा कम होती है। मृदा की सतह के नीचे कैल्शियम की मात्रा बढ़ती चली जाती है और नीचे की परतों में चूने के कंकर की सतह पाई जाती है।  इसके कारण मृदा में जल अंत: स्यन्दन अवरुद्ध हो जाता है। 

 

 

 वन मृदा

यह मृदा  आमतौर पर पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्र में पाई जाती हैं जहां पर्याप्त वर्षा वन उपलब्ध हैं।  इन मृदा के गठन में पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार बदलाव आता है।  नदी घाटियों में ये मृदाएं दोमट ओर सिल्तदर होती है, परन्तु ऊपरी ढालो पर इनका गठन मोटे कणो का होता है। हिमालय के हिमाछादित क्षेत्रों में इन मृदाओ का बहुत अपरदन होता है। नदी घाटी के निचले क्षेत्रों , विशेषकर नदी सोपानो और जलोढ़ पंखो, आदि में ये मृदाएँ उपजाऊ होती है। 

 

 

मृदा अपरदन और संरक्षण

मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते हैं।  मृदा के बनने और अपरदन की क्रियाएं आमतौर पर एक साथ चलती हैं और दोनों में संतुलन होता है।  परंतु मानवीय क्रियाएं जैसे वनोन्मूलन, अति पशुचारण ,निर्माण और खनन इत्यादि से कई बार यह संतुलन भंग हो जाता है।  जिसके कारण मृदा अपरदन की प्रक्रिया तेज शुरू हो जाती है

 

मृदा अपरदन रोकने के उपाय

समोच्च जुताई
पट्टी कृषि
रक्षक मेखला

 

 

 

अध्याय 2 : वन एवं वन्य जीव संसाधन

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