मानचित्र 1 :- अरब भूगोलवेता ‘ अल-इदरीसी ‘ ने 1154 में बनाया था। यहाँ जो नक्शा दिया गया है वह उसके द्वारा बनाए गए दुनिया के बड़े मानचित्र का हिस्सा है और भरतीय उपमहाद्वीप को दर्शाता है। इस समय चीजों की जानकारी का अभाव था और मानचित्र बनाने का तकनीक था। जिसके कारण ये मानचित्र उल्टा दर्शाया गया है।
मानचित्र 2 :- फ्रांसीसी मानचित्रकार ने 1720 में बनाया था। इस समय मानचित्रकार बनाने का तकनीक में काफ़ी बदल गई थीं । ये मानचित्रकार लगभग 600 वर्ष बाद बनाया गया। यूरोप के नाविक तथा व्यापारी अपनी समुद्र यात्रा के लिए इस नक्शे का इस्तेमाल किया करते थे। नई और पुरानी
शब्दवली :- ऐतिहासिक अभिलेख कई तरह की भाषाओं में मिलते हैंऔर ये भाषाएँ भी समय के साथ-साथ बहुत बदली हैं। उदाहरण के लिए ‘ हिंदुस्तान ‘ शब्द ही लीजिए। आज हम ऐसे आधुनिक राष्ट्र राज्य ‘ भारत ‘ के अर्थ में लेते हैं। तेरहवीं सदी में ज़ब फ़ारसी के इतिहासकार मिन्हाज -ए -सिराज ने हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग किया था तो उसका आशय पंजाब , हरियाणा और गंगा-यमुना के बिच में स्थित इलाकों से था। उसने इस शब्द का राजनितिक अर्थ में उन इलाकों के लिए इस्तेमाल किया जो दिल्ली के ‘ सुल्तान ‘ के अधिकार क्षेत्र में आते थे।
हिंदुस्तान शब्द दक्षिण भारत के समावेश में कभी नहीं हुआ। सोलहवीं सदी के आरंभ में बाबर ने हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग इस उपमहाद्वीप के भूगोल , पशु-पक्षियों और यहाँ के निवासियों की संस्कृति का वर्णन कने के लिए किया। मगर ‘ भारत ‘ को एक भौगोलिक और सांस्कृतिक सत्त्व के रूप में पहचाना जा रहा था वहाँ हिंदुस्तान शब्द से वे राजनितिक और राष्ट्रीय अर्थ नहीं जुड़े थे जो हम आज जोड़ते हैं। मानो किसी गाँव में आने वाला कोई भी अनजान व्यक्ति , जो उसे समाज या संस्कृति का अंग न हो ,’ विदेशी ‘ कहलाता था।
स्रोत :- इतिहासकार किस युग का अध्ययन करते हैं और उनकी खोज की प्रकृति क्या है , इसे देखते हुए वे अलग-अलग तरह के स्रोतों का सहारा लेते है। इस पुस्तक में हम मोटे तौर 700 से 1750 ईस्वी तक लगभग हज़ार वर्षों के बारे में पढ़ेंगे। इतिहासकार इस काल के बारे में सूचना इकट्ठी करने के लिए अभी भी सिक्कों , शिलालेखों , स्थापत्य ( भवन निर्माण कला ) तथा लिखित सामग्री पर निर्भर करते हैं।
इस युग में प्रामाणिक लिखित सामग्री की संख्या और विविधता आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गई। इस समय के दौरान कागज क्रमश : सस्ता होता गया और बड़े पैमाने पर उपलब्ध भी होने लगा। लोग धर्मग्रंथ , शासकों के वृतांत , संतो के लेखन तथा उपदेश , अर्जियाँ , अदालतों के दस्तावेज , हिसाब तथा करों के खाते आदि लिखने में इसका उपयोग करने लगे। धनी व्यक्ति , शासक , जन , मठ तथा मंदिर पांडुलिपियाँ एकत्रित किया करते थे।
इन पांडुलिपियों को पुस्तकालयों तथा अभिलेखागारों में रखा जाता है इन पांडुलिपियों तथा दस्तावेजों से इतिहासकारों को बहुत सारी विस्तृत जानकारी मिलती है मगर साथ ही इनका उपयोग कठिन हैं।
नए सामाजिक और रजनीतिक समूह :- 700 और 1750 के बीच के हज़ार वर्षों का अध्ययन इतिहासकारों के आगे भारी चुनौती रखता है , मुख्य रूप से इसलिए कि इस पूरे काल में बड़े पैमाने पर और और अनेक तरह के परिवर्तन हुए। इस काल में अलग-अलग समय पर और नई प्रौद्योगिकी के दर्शन होते हैं जैसे – सिंचाई में रहट , कताई में चर्खे और युद्ध में आग्नेयास्त्रों ( बारूद वाले हथियार ) का इस्तेमाल।
इस उपमहाद्वीप में नई तरह का खान-पान भी आया-आलू , मक्का , मिर्च , चाय और कॉफ़ी। ध्यान रहे कि ये तमाम परिवर्तन नई प्रौद्योगिकीयाँ और फ़सलें- उन लोगों के साथ आए जो विचार भी लेकर आए थे। परिणामस्वरूप यह काल आर्थिक , राजनीतिक , सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों का भी काल रहा।
राजपूत :- इस काल में जिन समुदायों का महत्त्व बढ़ा उनमे से एक समुदाय था राजपूत , जिसका नाम ‘ राजपूत ‘ ( अर्थात राजा का पुत्र ) से निकला है। आठवीं से चौदवहीं सदी के बीच यह नाम आमतौर पर योद्धाओं के उस समूह के लिए प्रयुक्त होता था जो क्षत्रिय वर्ण के होने का दावा करते थे।
क्षेत्र और साम्रज्य :- इस काल में राज्यों के अंतर्गत कई सारे क्षेत्रआ जाते थे दिल्ली के सुल्तान ग़यासुद्दीन बलबन (1266-1287 ) की प्रशंसा में एक संस्कृत प्रशस्ति में उसे एक विशाल साम्राज्य का शासक बताया गया है जो पूर्व में बंगाल ( गौड़ ) से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान के गजनी ( गज्जन ) तक फैला हुआ था और जिसमें संपूर्ण दक्षिण भारत ( द्रविड़ ) भी आ जाता था। गौड़ , आंध्र , केरल , कर्नाटक , महराष्ट्र और गुजरात आदि। 700 तक कई क्षेत्रों के अपने-अपने भौगोलिक आयाम तय हो चुके थे र उनकी भाषा तथा स्संस्कृतिक विशेषताएँ स्पष्ट हो गयी थी।
पुराने और नए धर्म :- इतिहास के जिन हज़ार वर्षों की पड़ताल हम कर रहे हैं , इनके दौरान धर्मिक परंपराओं में कई बड़े परिवर्तन आए। दैविक तत्त्व में लोगों का आस्था कभी-कभी बिल्कुल ही वैयक्तिक स्तर पर होती थी मगर आम तौर पर इस आस्था का स्वरूप सामूहिक होता था। किसी दैविक तत्त्व में सामूहिक आस्था , यानि धर्म , प्राय: स्थानीय समुदायों के सामाजिक और आर्थिक संगठन से संबंधित होती थी। जैसे-जैसे इन समुदायों का सामाजिक संसार बदलता गया वैसे ही इनकी आस्थाों में भी परिवर्तन आता गया।
हिंदू धर्म :- आज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते है , उसमें भी इसी युग में महत्वपूर्ण बदलाव आए। इन परिवर्तनों में से कुछ थे नए देवी -देवताओं की पूजा राजाओं द्वारा मंदिरों का निर्माण और समाज में पुरोहितों के रूप में ब्राह्मणों का बढ़ता महत्व बढ़ती सत्ता आदि।
संरक्षक :- संस्कृत ग्रंथों के ज्ञान के कारण समाज में ब्राह्मणों का बड़ा आदर होता था। यही युग था जिसमें इस उपमहाद्वीप में नए-नए धर्मों का भी आगमन हुआ। कुरान शरीफ़ का संदेश भारत म सातवीं सदी में व्यापारियों और आप्रवासियों के जरिए पहुँचा मुसलमान , कुरान शरीफ़ को अपना धर्मग्रंथ मानते है केवल एक ईश्वर-अल्लाह की सत्ता को स्वीकार करते है।
इस्लाम विद्वान धर्मशस्त्रियों और न्यायशस्त्रियों ‘ उलेमा ‘ को संरक्षण देते थे। इस्लाम के अनुया
यी में कुछ शिया थे जो पैगंबर साहब तथा कुछ सुन्नी थे जो पैगंबर साहब के दामाद अली को मुसलमानो का विधिसम्मत नेता मानते थे।
समय और इतिहास के कालखंडो पर विचार :- इतिहासकार समय को केवल घड़ी या कैलेंडर की तरह नहीं देखते यानि कि केवल घंटो , दिन या वर्षों के बीतने के रूप में ही नहीं देखते है। बल्कि कुछ बड़े-बड़े हिस्सों-युगों या कालों-में बाँट दिया जाए तो समय का अध्ययन कुछ आसान हो जाता है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में अंग्रेज़ इतिहासकारो ने भारत के इतिहास को तीन युगों में बाँटा था : ‘ हिंदू ‘ ,’ मुस्लिम ‘ , और ‘ ब्रिटिश ‘।
यह विभाजन इस विचार पर आधारित था की शासकों का धर्म ही एकमात्र महत्वपूर्ण ऐतिहासिक परिवर्तन होता है और अर्थव्यवस्था , समाज और संस्कृति में और कोई भी महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आता। इस दृष्टिकोण में इस उपमहद्वीप की अपार विविधता की भी उपेक्षा हो जाती थी। इस काल विभाजन को आज बहुत कम इतिहासकार आर्थिक तथा सामाजिक कारकों के आधार पर ही अतीत के विभिन्न कालखंडो की विशेषताएँ तय करते हैं।
अध्याय 2 : नये राजा और उनके राज्य