वायुमंडलीय दाब
● माध्य समुद्रतल से वायुमंडल की अंतिम सीमा तक एक इकाई क्षेत्रफल के वायु स्तंभ के भार को वायुमंडलीय दाब कहते हैं।
● वायुदाब को मापने की इकाई मिलीबार है।
● समुद्र तल पर औसत वायुमंडलीय दाब 1013.2 मिलीबार होता है
● वायुदाब को मापने के लिए पारद वायुदाबमापी (Mer cury barometer) अथवा निद्रव बैरोमीटर (Aner- oid barometer) का प्रयोग किया जाता है।
वायुदाब ऊँचाई के साथ घटता है। ऊंचाई पर वायुदाब भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होता है और यह विभिन्नता ही वायु में गति का मुख्य कारण है,
वायुदाब में ऊर्ध्वाधर भिन्नता
वायुमंडल के निचले भाग में वायुदाब ऊँचाई के साथ तीव्रता से घटता है। यह ह्रास दर प्रत्येक 10 मीटर की ऊँचाई पर । मिलीबार होता है। वायुदाब सदैव एक ही दर से नहीं घटता।
वायुदाब का क्षैतिज वितरण
पवनों की दिशा व वेग के संदर्भ में वायुदाब में अल्प अंतर भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
समदाब रेखाएँ : वे रेखाएँ हैं जो समुद्र तल से एक समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाती हैं। दाब पर ऊँचाई के प्रभाव को दूर करने और तुलनात्मक बनाने के लिए, वायुदाब मापने के बाद इसे समुद्र तल के स्तर पर घटा लिया जाता है।
निम्नदाब प्रणाली एक या अधिक समदाब रेखाओं से घिरी होती है जिसके केंद्र में निम्न वायुदाब होता है। उच्च दाब प्रणाली में भी एक या अधिक समदाब रेखाएँ होती हैं जिनके केंद्र में उच्चतम वायुदाब होता है।
समुद्रतल वायुदाब का विश्व-वितरण
विषुवत् वृत्त के निकट वायुदाब कम होता है और इसे विषुवतीय निम्न अवदाब क्षेत्र (Equatorial low) के नाम से जाना जाता है।
30° उत्तरी व 30° दक्षिणी अक्षांशों के साथ उच्च दाब क्षेत्र पाए जाते हैं, जिन्हें उपोष्ण उच्च वायुदाब क्षेत्र कहा जाता है।
ध्रुवों की तरफ 60° उत्तरी व 60° दक्षिणी अक्षांशों पर निम्न दाब पेटियाँ हैं जिन्हें अधोध्रुवीय निम्नदाब पट्टियाँ कहते हैं।
ध्रुवों के निकट वायुदाब अधिक होता है और इसे ध्रुवीय उच्च दाब प्रवणता प्रभाव, घर्षण बल तथा कोरिआलिस वायुदाब पट्टी कहते हैं।
ये वायुदाब पट्टियाँ स्थाई नही हैं। सूर्य किरणों के विस्थापन के साथ ये पट्टियाँ विस्थापित होती रहती हैं।
पवनों की दिशा व वेग को प्रभावित करने वाले बल
1) दाब-प्रवणता बल
वायुमंडलीय दाब भिन्नता एक बल उत्पन्न करता है। दूरी के संदर्भ में दाब परिवर्तन की दर दाब प्रवणता है। जहाँ समदाब रेखाएँ पास-पास हों, वहाँ दाब प्रवणता अधिक व समदाब रेखाओं के दूर-दूर होने से दाब प्रवणता कम होती है।
2) घर्षण बल
यह पवनों की गति को प्रभावित करता है। धरातल पर घर्षण सर्वाधिक होता है और इसका प्रभाव प्रायः धरातल से 1 से 3 कि०मी० ऊँचाई तक होता है। समुद्र सतह पर घर्षण न्यूनतम होता है।
3) कोरिऑलिस बल
● पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूर्णन पवनों की दिशा को प्रभावित करता है। सन् 1844 में फ्रांसिसी वैज्ञानिक ने इसका विवरण प्रस्तुत किया और
● इसी पर इस बल को कोरिऑलिस बल कहा जाता है। इस प्रभाव से पवनें उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाहिने तरफ व दक्षिण गोलार्ध में बाईं तरफ विक्षेपित (deflect) हो जाती हैं। जब पवनों का वेग अधिक होता है, तब विक्षेपण भी अधिक होता है।
● कोरिऑलिस बल अक्षांशों के कोण के सीधा समानुपात में बढ़ता है। यह ध्रुवों पर सर्वाधिक और विषुवत् वृत्त पर अनुपस्थित होता है।
विषुवत् वृत्त पर कोरिऑलिस बल शून्य होता है और पवनें समदाब रेखाओं के समकोण पर बहती हैं।
वायुदाब व पवनें :
पवनों का वेग व उनकी दिशा, पवनों को उत्पन्न करने वाले बलों का परिणाम है। पृथ्वी की सतह से 2-3 कि.मी की ऊँचाई पर ऊपरी वायुमंडल में पवनें धरातलीय घर्षण के प्रभाव से मुक्त होती हैं और मुख्यतः दाब प्रवणता तथा कोरिऑलिस बल से नियंत्रित होती हैं।
भूविक्षेपी पवनों :
जब समदाब रेखाएँ सीधी हों और घर्षण का प्रभाव न हो, तो दाब प्रवणता बल कोरिऑलिस बल से संतुलित हो जाता है। और फलस्वरूप पवनें समदाब रेखाओं के समानांतर बहती हैं। ये पवनें भूविक्षेपी (Geostrophic) पवनों के नाम से जानी जाती हैं
चक्रवाती परिसंचरण : निम्न दाब क्षेत्र के चारों तरफ पवनों का परिक्रमण चक्रवाती परिसंचरण कहलाता है।
प्रतिचक्रवाती परिसंचरण : उच्च वायु दाब क्षेत्र के चारों तरफ ऐसा होना प्रतिचक्रवाती परिसंचरण कहा जाता है।
वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण
भूमंडलीय पवनों का प्रारूप को प्रभावित करने वाले कारक :
1) वायुमंडलीय ताप में अक्षांशीय भिन्नता,
2) वायुदाब पट्टियों की उपस्थिति
3) वायुदाब पट्टियों का सौर किरणों के साथ विस्थापन,
4) महासागरों व महाद्वीपों का वितरण तथा
5) पृथ्वी का घूर्णन।
अंतर- उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ)
● उच्च सूर्यातप व निम्न वायुदाब होने से अंतर- उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) पर वायु संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है। उष्णकटिबंधों से आने वाली पवनें इस निम्न दाब क्षेत्र में अभिसरण करती हैं। अभिसरित वायु संवहन कोष्ठों के साथ ऊपर उठती हैं।
● यह क्षोभमंडल के ऊपर 14 कि.मी. की ऊँचाई तक ऊपर चढ़ती है और फिर ध्रुवों की तरफ प्रवाहित होती हैं।
● इसके परिणामस्वरूप लगभग 30° उत्तर व 30° दक्षिण अक्षांश पर वायु एकत्रित हो जाती है। इस एकत्रित वायु का अवतलन होता है और यह उपोष्ण उच्चदाब बनाता है।
कोष्ठ: पृथ्वी की सतह से ऊपर की दिशा में होने वाले परिसंचरण और इसके विपरीत दिशा में होने वाले परिसंचरण को कोष्ठ (Cell) कहते हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में ऐसे कोष्ठ को हेडले कोष्ठ कहा जाता है। मध्य अक्षांशीय वायु परिसंचरण में ध्रुवों से प्रवाहित होती ठंडी पवनों का अवतलन होता है और उपोष्ण उच्चदाब कटिबंधीय क्षेत्रों से आती गर्म हवा ऊपर उठती है। धरातल पर ये पवनें पछुआ पवनों के नाम से जानी जाती हैं
ध्रुवीय कोष्ठ :
ध्रुवीय अक्षांशों पर ठंडी सघन वायु का ध्रुवों पर अवतलन होता है और मध्य अक्षांशों की ओर ध्रुवीय पवनों के रूप में प्रवाहित होती हैं। इस कोष्ठ को ध्रुवीय कोष्ठ कहा जाता है।
पवनों के प्रकार :-
1) भूमण्डलीय पवनें (Planetary Winds )
2) सामयिक पवन (Seasonal Winds )
3) स्थानीय पवनें ( Local Winds )
भूमण्डलीय पवनें (Planetary Winds ) :
पृथ्वी के विस्तृत क्षेत्र पर एक ही दिशा में वर्ष भर चलने वाली पवनों को भूमण्डलीय पवनें कहते हैं। ये पवनें एक उच्चवायु दाब कटिबन्ध से दूसरे निम्न वायुदाब कटिबन्ध की ओर नियमित रूप में चलती रहती हैं
ये मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं :
व्यापारिक पवनें ।
पछुआ पवनें ।
ध्रूविय पवनें ।
व्यापारिक पवनें :-
• उपोष्ण उच्च वायु दाब कटिबन्धों से भूमध्य रेखीय निम्नवायु दाब कटिबन्धों की ओर चलने वाली पवनों को सन्मार्गी पवनें कहते हैं ।
• कोरिऑलिस बल के अनुसार ये अपने पथ से विक्षेपित होकर उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर पूर्व दिशा में तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी-पूर्व दिशा में – चलती हैं । व्यापारिक पवनों को अंग्रेजी में ट्रेड विंड्स कहते हैं । जर्मन भाषा में ट्रेड का अर्थ निश्चित मार्ग होता है ।
• विषुव वृत्त तक पहुँचते- • पहुँचते ये जलवाष्प – संतृप्त हो जाती हैं तथा विषुवत वृत के निकट पूरे साल भारी वर्षा करती है ।
पछुआ पवनें :-
• उच्च वायु दाब कटिबन्धों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबन्धों की ओर बहती हैं ।
• दोनो गोलार्द्ध में इनका विस्तार 30° अंश से 60° अक्षांशों के मध्य होता है ।
• उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा दक्षिण पश्चिम से तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर पश्चिम से होती है –
• व्यापारिक पवनों की तरह ये पवनें शांत और दिशा की दृष्टि से नियमित नहीं हैं । इस कटिबन्ध में प्रायः चक्रवात तथा प्रतिचक्रवात आते रहते हैं ।
ध्रुवीय पवनें :-
• ये पवनें ध्रुवीय उच्च वायुदाब कटिबन्धों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबन्धों की ओर चलती हैं ।
• इनका विस्तार दोनो गोलार्डों में 60° अक्षांशो और ध्रुवों के मध्य है ।
• बर्फीले क्षेत्रों से आने के कारण ये पवनें अत्यन्त ठंडी और शुष्क होती हैं ।
सामयिक पवन (Seasonal Winds ) :-
• ये वे पवनें हैं जो ऋतु या मौसम के अनुसार अपनी दिशा परिवर्तित करती हैं। उन्हें सामयिक पवनें कहते हैं। मानसूनी पवनें इसका अच्छा उदाहरण हैं ।
स्थानीय पवनें (Local Winds ) :-
• ये पवनें भूतल के गर्म व ठण्डा होने की भिन्नता से पैदा होती हैं । ये स्थानीय रूप से सीमित क्षेत्र को प्रभावित करती हैं । स्थल समीर व समुद्र समीर, लू , फोन, चिनूक, मिस्ट्रल आदि ऐसी ही स्थानीय , पवनें है ।
मानसूनी पवनें :-
• मानसूनी शब्द अरबी भाषा के ‘ मौसिम’ शब्द से बना है । जिसका अर्थ ऋतु है। अतः मानसूनी पवनें वे पवनें हैं जिनकी दिशा मौसम के अनुसार बिल्कुल उलट जाती है ।
• ये पवनें ग्रीष्म ऋतु के छह माह में समुद्र से स्थल की ओर तथा शीत ऋतु के छह माह में स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं ।
• इन पवनों को दो वर्गों, ग्रीष्मकालीन मानसून तथा शीतकालीन मानसून में बाँटा जाता है । ये पवनें भारतीय उपमहाद्वीप में चलती हैं ।
स्थल – समीर व समुद्र – समीर :-
स्थल समीर :-
• ये पवनें रात के समय स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। क्योंकि रात के समय स्थल शीघ्र ठण्डा होता है तथा समुद्र देर से ठण्डा होता है जिसके कारण समुद्र पर निम्न वायु दाब का क्षेत्र विकसित हो जाता है ।
समुद्र – समीर (Sea Breeze ) :-
• ये पवनें दिन के समय समुद्र से स्थल की ओर चलती हैं । क्योंकि दिन के समय जब सूर्य चमकता है तो समुद्र की अपेक्षा स्थल शीघ्र गर्म हो जाता है । जिससे स्थल पर निम्न वायुदाब का क्षेत्र विकसित हो जाता है । ये पवनें आर्द्र होती हैं ।
घाटी समीर :-
• दिन के समय शांत स्वच्छ मौसम में वनस्पतिविहीन, सूर्यभिमुख, ढाल तेजी से गर्म हो जाते हैं और इनके संपर्क में आने वाली वायु भी गर्म होकर ऊपर उठ जाती है । इसका स्थान लेने के लिए घाटी से वायु ऊपर की ओर चल पड़ती है ।
• दिन में दो बजे इनकी गति बहुत तेज होती है ।
• कभी कभी इन पवनों के कारण बादल बन जाते हैं, और पर्वतीय ढालों पर वर्षा होने लगती है।
पर्वत समीर :-
• रात के समय पर्वतीय ढालों की वायु पार्थिव विकिरण के कारण ठंडी और भारी होकर घाटी में नीचे उतरने लगती है ।
• इससे घाटी का तापमान सूर्योदय के कुछ पहले तक काफी कम हो जाता है । जिससे तापमान का व्युत्क्रमण हो जाता है ।
• सूर्योदय से कुछ पहले इनकी गति बहुत तेजी होती है। ये समीर शुष्क होती हैं ।
वायुराशियाँ
• जब वायु किसी समांगी क्षेत्र पर पर्याप्त लंबे समय तक रहती है तो यह उस क्षेत्र के गुणों को धारण कर लेती है। यह समांग क्षेत्र विस्तृत महासागरीय सतह या विस्तृत मैदानी भाग हो सकता हैं। तापमान तथा आर्द्रता संबंधी विशिष्ट गुणों वाली यह वायु, वायुराशि कहलाती है।
• वायुराशियों को उनके उद्गम क्षेत्र के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।
इनके प्रमुख पाँच उद्गम क्षेत्र हैं। जो इस प्रकार हैं
1. उष्ण व उपोष्ण कटिबंधीय महासागर
2. उपोष्णकटिबंधीय उष्ण मरुस्थल
3. उच्च अक्षांशीय अपेक्षाकृत ठंडे महासागर
4. उच्च अक्षांशीय अति शीत बर्फ आच्छादित महाद्वीपीय क्षेत्र
5. स्थायी रूप से बर्फ आच्छादित महाद्वीप अंटार्कटिक तथा आर्कटिक
वायुराशि के प्रकार :
1) उष्णकटिबंधीय महासागरीय वायुराशि (mT).
2) उष्णकटिबंधीय महाद्वीपीय (CT),
3) ध्रुवीय महासागीय (mP)
4) ध्रुवीय महाद्वीपीय (CP),
5) महाद्वीपीय आर्कटिक (CA) उष्णकटिबंधीय वायुराशियाँ गर्म होती हैं तथा ध्रुवीय वायुराशियाँ ठंडी होती हैं।
वाताग्र : जब दो भिन्न प्रकार की वायुराशियाँ मिलती हैं तो उनके मध्य सीमा क्षेत्र को वाताग्र कहते हैं। वाताग्रों के बनने की प्रक्रिया को वाताग्र-जनन (Frontogenesis) कहते हैं।
वाताग्र चार प्रकार के होते हैं:
(i) शीत वाताग्र
(ii) उष्ण वाताग्र
(iii) अचर वाताग्र
(iv) अधिविष्ट वाताग्र
1) जब वाताग्र स्थिर हो जाए तो इन्हें अचर वाताग्र कहा जाता है (अर्थात् ऐसे वाताग्र जब कोई भी वायु ऊपर नहीं उठती)। जब शीतल व भारी वायु आक्रामक रूप में उष्ण वायुराशियों को ऊपर धकेलती हैं, इस संपर्क क्षेत्र को शीत वाताग्र कहते हैं।
2) यदि गर्म वायुराशियाँ आक्रामक रूप में ठंडी वायुराशियों के ऊपर चढ़ती हैं तो इस संपर्क क्षेत्र को उष्ण वाताग्र कहते हैं।
3) यदि एक वायुराशि पूर्णतः धरातल के ऊपर उठ जाए तो ऐसे वाताग्र को अधिविष्ट वाताग्र कहते हैं।
बहिरूरुष्ण कटिबंधीय चक्रवात
● वे चक्रवातीय वायु प्रणालियाँ, जो उष्ण कटिबंध से दूर, मध्य व उच्च अक्षांशों में विकसित होती हैं, उन्हें बहिरूष्ण या शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं।
● मध्य तथा उच्च अक्षांशों में जिस क्षेत्र से ये गुजरते हैं, वहाँ मौसम संबंधी अवस्थाओं में अचानक तेजी से बदलाव आते हैं।
● बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात ध्रुवीय वाताग्र के साथ-साथ बनते हैं। आरम्भ में वाताग्र अचर होता है।
● जब वाताग्र के साथ वायुदाब कम हो जाता है, कोष्ण वायु उत्तर दिशा की ओर तथा ठंडी वायु दक्षिण दिशा में घड़ी की सुइयों के विपरीत चक्रवातीय परिसंचरण करती है। इस चक्रवातीय प्रवाह से बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात विकसित होता है
● बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात पश्चिम से पूर्व दिशा में चलते हैं।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात
● उष्ण कटिबंधीय चक्रवात आक्रामक तूफान हैं जिनकी उत्पत्ति उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के महासागरों पर होती है और ये तटीय क्षेत्रों की तरफ गतिमान होते हैं।
● ये चक्रवात आक्रामक पवनों के कारण विस्तृत विनाश, अत्यधिक वर्षा और तूफान लाते हैं। ये चक्रवात विध्वंसक प्राकृतिक आपदाओं में से एक हैं।
● यह भिन्न भिन्न नमो से भी जाने जाते है
हिंद महासागर में – चक्रवात
अटलांटिक महासागर में ‘हरीकेन
पश्चिम प्रशांत और दक्षिण चीन सागर में ‘टाइफून’
पश्चिमी आस्ट्रेलिया में ‘विलीविलीज
इनकी उत्पत्ति व विकास के लिए अनुकूल स्थितियाँ हैं :
(i) बृहत् समुद्री सतह; जहाँ तापमान 27° सेल्सियस से अधिक हो;
(ii) कोरिऑलिस बल का होना
(iii) ऊर्ध्वाधर पवनों की गति में अंतर कम होना;
(iv) कमजोर निम्न दाब क्षेत्र या निम्न स्तर का चक्रवातीय परिसंचरण का होना
(v) समुद्री तल तंत्र पर ऊपरी अपसरण
● एक विकसित उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की विशेषता इसके केंद्र के चारों तरफ प्रबल सर्पिल (Spiral) पवनों का परिसंचरण है, जिसे इसकी आँख (Eye) कहा जाता है ।
● इस परिसंचरण प्रणाली का व्यास 150 से 250 किलोमीटर तक होता है।
● इसका केंद्रीय (अक्षु) क्षेत्र शांत होता है, जहाँ पवनों का अवतलन होता है। अक्षु के चारों तरफ अक्षुभित्ति होती है
● यह आरोहण क्षोभसीमा की ऊँचाई तक पहुँचता है। इसी क्षेत्र में पवनों का वेग अधिकतम होता है जो 250 कि.मी. प्रति घंटा तक होता है।
● इन चक्रवातों से मूसलाधार वर्षा होती है।
● इनका व्यास बंगाल की खाड़ी, अरब सागर व हिंद महासागर पर 600 से 1,200 किलोमीटर के बीच होता है। यह परिसंचरण प्रणाली धीमी गति से 300 से 500 कि.मी. प्रति दिन की दर से आगे बढ़ते हैं।
तड़ितझंझा व टोरनेडो
● ये अल्प समय के लिए रहते हैं, अपेक्षाकृत कम क्षेत्रफल तक सीमित होते हैं, परंतु आक्रामक होते हैं।
● तड़ितझंझा उष्ण आर्द्र दिनों में प्रबल संवहन के कारण उत्पन्न होते हैं। तड़ितझंझा एक पूर्ण विकसित कपासी वर्षी मेघ है जो गरज व बिजली उत्पन्न करते हैं।
● जब यह बादल अधिक ऊँचाई तक चले जाते हैं, जहाँ तापमान शून्य से कम रहता हैं, तो इससे ओले बनते हैं। और ओलावृष्टि होती है। आर्द्रता कम होने पर ये तड़ितझंझा धूल भरी आंधियाँ लाते हैं।
● भयानक तड़ितझंझा से कभी-कभी वायु आक्रामक रूप में हाथी की सूंड की तरह सर्पिल अवरोहण करती है। इसमें केंद्र पर अत्यंत कम वायुदाब होता है। और यह व्यापक रूप से भयंकर विनाशकारी होते हैं। इस परिघटना को ‘टोरनेडो‘ कहते हैं।