आपदा क्या है?
आपदा प्राय: एक अनपेक्षित घटना होती है, जो ऐसी ताकतों द्वारा घटित होती है, जो मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। यह थोड़े समय में और बिना चेतावनी के घटित होती है जिसकी वजह से मानव जीवन के क्रियाकलाप अवरुद्ध होते हैं तथा बड़े पैमाने पर जानमाल का नुकसान होता है। अतः इससे निपटने के लिए हमें सामान्यतः दी जाने वाली वैधानिक आपातकालीन सेवाओं की अपेक्षा अधिक प्रयत्न करने पड़ते हैं।
आपदा
खतरे का ऐसा स्वरूप जिससे विशाल स्तर पर जन-धन वह भूमि की हानि होती है, उसे आपदा कहते हैं।
प्राकृतिक आपदा
ऐसी आपदा जिसमें मानव का किसी भी प्रकार का वश नहीं चलता। प्राकृतिक आपदा एक प्राकृतिक जोखिम है, प्राकृतिक आपदाओं में भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, हिम खंडों का टूटना ,अतिवृष्टि इत्यादि है। इन सभी प्रकार की आपदाओं में अपार जन धन की हानि बड़े पैमाने पर होती है, इन सभी आपदाओं से मनुष्य तथा पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है ।
आपदाओं के लिए जिम्मेदार कारक
प्राकृतिक बल औऱ आपदाओं की उत्पत्ति का संबंध मानव क्रियाकलापों से भी है। कुछ मानवीय गतिविधियाँ तो सीधे रूप से इन आपदाओं के लिए उत्तरदायी हैं। भोपाल गैस त्रासदी, चेरनोबिल नाभिकीय आपदा, युद्ध, सी एफ सी (क्लोरोफ्लोरो कार्बन) गैसें वायुमंडल में छोड़ना तथा ग्रीन हाउस गैसें ध्वनि, वायु, जल तथा मिट्टी संबंधी पर्यावरण प्रदूषण आदि आपदाएँ इसके उदाहरण हैं।
आपदा को रोकने में सरकार की भूमिका
विभिन्न स्तरों पर कई प्रकार के ठोस कदम उठाए गए हैं जिनमें भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्थापना 1993 में रियो डि जनेरो, ब्राजील में भू-शिखर सम्मेलन (Earth Summit) और मई 1994 में याकोहामा, जापान में आपदा प्रबंध पर विश्व संगोष्ठी आदि विभिन्न स्तरों पर इस दिशा में उठाए जाने वाले ठोस कदम हैं।
प्राकृतिक आपदा द्वारा पहुँचाई गई अति के परिणाम भूमंडलीय प्रतिघात है और अकेले किसी राष्ट्र में इतनी क्षमता नहीं है कि वह इन्हें सहन कर पाए। अतः 1989 में संयुक्त राष्ट्र सामान्य असेंबली में इस मुद्दे को उठाया गया था और मई 1994 में जापान के काम नगर में आपदा प्रबंधन को विश्व काफ्रेंस इसे औपचारिकता प्रदान कर दी गई और यहीं बाद में योकोहामा रणनीति तथा अधिक सुरक्षित संसार के लिए कार्य योजना’ कहा गया।
भारत में प्राकृतिक आपदाएँ
भारत विशाल महाद्वीप और विभिन प्रकार की भूमि , भूखंड , औऱ विभिन प्रकार की स्थल वाला देश है। यहाँ लगभग सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदा आती रहती है । तथा बहुत अधिक जनसंख्या के कारण भारत की प्राकृतिक आपदाओं द्वारा सुभेद्यता (vulnerability) को बढ़ा दिया है।
भूकंप
भूकंप सबसे ज्यादा अपूर्वसूचनोय और विध्वंसक प्राकृतिक आपदा है। भूकंपों की उत्पत्ति विवर्तनिकी से संबंधित है। में विध्वंसक है और विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। भूकंप पृथ्वी को ऊपरी सतह में विवर्तनिक गतिविधियों से निकली ऊर्जा से पैदा होते हैं। इसकी तुलना में ज्वालामुखी विस्फोट चट्टान गिरने भू-स्खलन, जमीन के अवतलन (अँसने) (विशेषकर खदानों वाले क्षेत्र में बाँध व जलाशयों के बैठने इत्यादि
भारत मे भूकंप का मुख्य कारण
इंडियन प्लेट प्रति वर्ष उत्तर व उत्तर-पूर्व दिशा में एक सेंटीमीटर खिसक रही है। परंतु उत्तर में स्थित यूरेशियन प्लेट इसके लिए अवरोध पैदा करती है। परिणामस्वरूप इन प्लेटों के किनारे लॉक हो जाते हैं और कई स्थानों पर लगातार ऊर्जा संग्रह होता रहता है। अधिक मात्रा में ऊर्जा संग्रह से तनाव बढ़ता रहता है और दोनों प्लेटों के बीच लॉक टूट जाता है और एकाएक ऊर्जा मोचन से हिमालय के चाप के साथ भूकंप आ जाता है। इससे प्रभावित मुख्य केंद्र शासित प्रदेशों और राज्यों में जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग उपमंडल तथा उत्तर-पूर्व के सात राज्य शामिल हैं।
इन क्षेत्रों के अतिरिक्त, मध्य-पश्चिमी क्षेत्र, विशेषकर गुजरात (1819, 1956 और 2001 ) और महाराष्ट्र (1967 और 1993 ) में कुछ प्रचंड भूकंप आए हैं।
भारत को 5 भूकंप क्षेत्रो में बाँटा
राष्ट्रीय भूभौतिकी प्रयोगशाला, भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण. मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार ने मिल कर 1200 भूकंपों का गहन विश्लेषण किया और भारत को निम्नलिखित पाँच भूकंपीय क्षेत्रों (zones) में बाँटा है।
(i) अति अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र
(ii) अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र
(iii) मध्यम क्षति जोखिम क्षेत्र
(iv) निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र
(v) अति निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र
भूकंप के प्रभाव
1 जमीन के झटके जमीन के जमने में अंतर
2 सुनामी, भूस्खलन, कीचड़ धंसना और हिमस्खलन प्राकृतिक आपदाओं के उदाहरण हैं।
3 मिट्टी का द्रवीकरण
4 जमीन का हिलना और हिलना
5 आग और बाढ़
6 बुनियादी ढांचे का टूटना।
भूकंप न्यूनीकरण
भूकंप को रोका नहीं जा सकता। अतः इसके लिए विकल्प यह है कि इस आपदा से निपटने की तैयारी रखी जाए और इससे होने वाले नुकसान को कम किया जाए।
(1) भूकंप नियंत्रण केंद्रों की स्थापना, जिससे भूकंप संभावित क्षेत्रों में लोगों को सूचना पहुँचाई जा सके। जी.पी.एस की मदद से प्लेट हलचल का पता लगाया जा सकता है।
II) देश में भूकंप संभावित क्षेत्रों का सुभेद्यता मानचित्र तैयार करना और संभावित जोखिम की सूचना लोगों तक पहुँचाना तथा उन्हें इसके प्रभाव को कम करने के बारे में शिक्षित करना।
(iii) भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में घरों के प्रकार और भवन डिज़ाइन में सुधार लाना। ऐसे क्षेत्रों में ऊँची इमारतें, बड़े औद्योगिक संस्थान और शहरीकरण को बढ़ावा न देना।
(iv) अंतत: भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में भूकंप प्रतिरोधी (resistant) इमारतें बनाना और सुभेद्य क्षेत्रों में हल्के निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करना।
सुनामी
भूकंप और ज्वालामुखी से महासागरीय धरातल में अचानक हलचल पैदा होती है और महासागरीय जल का अचानक विस्थापन होता है। परिणामस्वरूप ऊर्ध्वाधर ऊँची तरंगें पैदा होती हैं जिन्हें सुनामी (बंदरगाह लहरें ) या भूकंपीय समुद्री लहरें कहा जाता है। सामान्यतः शुरू में सिर्फ एक ऊर्ध्वाधर तरंग ही पैदा होती है, परंतु कालांतर में जल तरंगों की एक श्रृंखला बन जाती है।
महासागर में जल तरंग की गति जल की गहराई पर निर्भर करती है। इसकी गति उथले समुद्र में ज्यादा और गहरे समुद्र में कम होती है। परिणामस्वरूप महासागरों के अंदरुनी भाग इससे कम प्रभावित होते हैं।
जब सुनामी उथले समुद्र में प्रवेश करती है, इसकी तरंग लंबाई कम होती चली जाती है, समय वही रहता है और तरंग की ऊँचाई बढ़ती जाती है। कई बार तो इसकी ऊँचाई 15 मीटर या इससे भी अधिक हो सकती है जिससे तटीय क्षेत्र में भीषण विध्वंस होता है।
तट पर पहुँचने पर सुनामी तरंगें बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा निर्मुक्त करती हैं और समुद्र का जल तेजी से तटीय क्षेत्रों में घुस जाता है और बंदरगाह शहरों, कस्बों, अनेक प्रकार के ढाँचों, इमारतों और बस्तियों को तबाह करता है।
दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में सुनामी अधिक जान-माल का नुकसान पहुँचाती है। दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में सुनामी के प्रभाव को कम करना कठिन है क्योंकि इससे होने वाले नुकसान का पैमाना बहुत बृहत् है।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कम दबाव वाले उग्र मौसम तंत्र हैं और 30° उत्तर तथा 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच पाए जाते हैं। ये आमतौर पर 500 से 1000 किलोमीटर क्षेत्र में फैला होता है और इसकी ऊर्ध्वाधर ऊँचाई 12 से 14 किलोमीटर हो सकती है।
इनकी उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित प्रारंभिक परिस्थितियों का होना आवश्यक है।
(i) लगातार और पर्याप्त मात्रा में उष्ण व आर्द्र वायु की सतत् उपलब्धता जिससे बहुत बड़ी मात्रा में गुप्त ऊष्मा निर्मुक्त हो ।
(ii) तीव्र कोरियोलिस बल जो केंद्र के निम्न वायुदाब को भरने न दे। (भूमध्य रेखा के आस पास 0° से 5° कोरियोलिस बल कम होता है और परिणामस्वरूप यहाँ ये चक्रवात उत्पन्न नहीं होते ) ।
(iii) क्षोभमंडल में अस्थिरता, जिससे स्थानीय स्तर पर निम्न वायु दाब क्षेत्र बन जाते हैं। इन्हीं के चारों ओर चक्रवात भी विकसित हो सकते हैं।
(iv) मजबूत ऊर्ध्वाधर वायु फान (wedge) की अनुपस्थिति, जो नम और गुप्त ऊष्मा युक्त वायु के ऊर्ध्वाधर बहाव को अवरुद्ध करे।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की संरचना
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात में वायुदाब प्रवणता बहुत अधिक होती है। चक्रवात का केंद्र गर्म वायु तथा निम्न वायुदाब और मेघरहित क्रोड होता है। इसे ‘तूफान की ‘आँख’ कहा जाता है।
जो उच्च वायुदाब प्रवणता का प्रतीक है। वायुदाब प्रवणता 14 से 17 मिलीबार / 100 किलोमीटर के आसपास होता है। कई बार यह 60 मिलीबार / 100 किलोमीटर तक हो सकता है। केंद्र से पवन पट्टी का विस्तार 10 से 150 किलोमीटर तक होता है।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के परिणाम
उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की ऊर्जा का स्रोत उष्ण आर्द्र वायु से प्राप्त होने वाली गुप्त ऊष्मा है। अतः समुद्र से दूरी बढ़ने पर चक्रवात का बल कमजोर हो जाता है। भारत में, चक्रवात जैसे-जैसे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से दूर जाता है उसका बल कमजोर हो जाता है। तटीय क्षेत्रों में अकसर उष्ण कटिबंधीय चक्रवात 180 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से टकराते हैं। इससे तूफानी क्षेत्र में समुद्र तल भी असाधारण रूप से ऊपर उठा होता है जिसे ‘तूफान महोर्मि’ (storm surge) कहा जाता है।
बाढ़
बाढ़ भू-पटल पर अधिक वर्षा के कारण उत्पन्न होने वाली प्राकृतिक आपदा है। बाढ़ के प्रभाव से एक विस्तृत भू-भाग जलमग्न हो जाता है एवं इससे विस्तृत पैमाने पर जन-धन की हानि होती है।
सामान्यतया बाढ़े नदी मे सीमा से अधिक जल जा आ जाने के कारण आती है। इस संदर्भ मे कहा गया है,” बाढ़ नदी की एक ऐसी उच्च अवस्था है, जिसमे नदी सामान्यतया अपने विशिष्ट पहुँच वाले प्राकृतिक बाँधों को तोड़कर बहने लगती है।
बाढ़ आमतौर पर अचानक नहीं आती और कुछ विशेष क्षेत्रों और ऋतु में ही आती है। बाढ़ तब आती हैं। जब नदी जल वाहिकाओं में इनकी क्षमता से अधिक जल बहाव होता है और जल, बाढ़ के रूप में मैदान के निचले हिस्सों में भर जाता है। कई बार तो झीलें और आंतरिक जल क्षेत्रों में भी क्षमता से अधिक जल भर जाता है।
बाढ़ आने के कारण
बाढ़ आने के और भी कई कारण हो सकते हैं, जैसे- तटीय क्षेत्रों में तूफानी महोर्मि, लंबे समय तक होने वाली तेज बारिश, हिम का पिघलना, जमीन की अंतःस्पंदन (infiltration) दर में कमी आना और अधिक मृदा अपरदन के कारण नदी जल में जलोढ़ की मात्रा में वृद्धि होना।
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने देश में 4 करोड़ हैक्टेयर भूमि को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र घोषित किया है। मानचित्र 7.6 भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को दर्शाता है। असम, पश्चिम बंगाल और बिहार राज्य सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में से हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत की ज्यादातर नदियाँ, विशेषकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में बाढ़ लाती रहती हैं ।। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब, आकस्मिक बाढ़ से पिछले कुछ दशकों में जलमग्न होते रहे हैं।
बाढ़ परिणाम और नियंत्रण
असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश ( मैदानी क्षेत्र) और उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात के तटीय क्षेत्र तथा पंजाब, राजस्थान, उत्तर गुजरात और हरियाणा में बार-बार बाढ़ आने और कृषि भूमि तथा मानव बस्तियों के डूबने से देश की आर्थिक व्यवस्था तथा समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। भारत सरकार और राज्य सरकारें हर वर्ष बाढ़ से पैदा होने वाली गंभीर स्थिति से अवगत हैं।
बाढ़ नियंत्रण के लिए उठाए गए कदम
1 बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में तटबंध बनाना,
2 नदियों पर बाँध बनाना,
3 वनीकरण और आमतौर पर बाढ़ लाने वाली नदियों के ऊपरी जल ग्रहण क्षेत्र में निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगाना।
सूखा
सूखा ऐसी स्थिति को कहा जाता है जब लंबे समय तक कम वर्षा, अत्यधिक वाष्पीकरण और जलाशयों तथा भूमिगत जल के अत्यधिक प्रयोग से भूतल पर जल की कमी हो जाए।
सूखे के प्रकार
मौसमविज्ञान संबंधी सूखा
यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें लंबे समय तक अपर्याप्त वर्षा होती है और इसका सामयिक और स्थानिक वितरण भी असंतुलित होता है।
कृषि सूखा
इसे भूमि – आर्द्रता सूखा भी कहा जाता है। मिट्टी में आर्द्रता की कमी के कारण फसलें मुरझा जाती हैं। जिन क्षेत्रों में 30 प्रतिशत से अधिक कुल बोये गए क्षेत्र में सिंचाई होती है, उन्हें भी सूखा प्रभावित क्षेत्र नहीं माना जाता ।
जलविज्ञान संबंधी सूखा
यह स्थिति तब पैदा होती है जब विभिन्न जल संग्रहण, जलाशय, जलभूत और झीलों इत्यादि का स्तर वृष्टि द्वारा की जाने वाली जलापूर्ति के बाद भी नीचे गिर जाए।
पारिस्थितिक सूखा
जब प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में जल की कमी से उत्पादकता में कमी हो जाती है और परिणामस्वरूप पारिस्थितिक तंत्र में तनाव आ जाता है तथा यह क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो परिस्थितिक सूखा कहलाता है।
भारत में सूखा ग्रस्त क्षेत्र
भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र का 19 प्रतिशत भाग और जनसंख्या का 12 प्रतिशत हिस्सा हर वर्ष सूखे से प्रभावित होता है। देश का लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र सूखे से प्रभावित हो सकता है जिससे 5 करोड़ लोग इससे प्रभावित होते हैं। यह प्रायः देखा गया है कि जब देश के कुछ भागों में बाढ़ कहर ढा रही होती है,
सूखे की तीव्रता के आधार पर सूखे को निम्नलिखित क्षेत्रों में बाँटा गया है
अत्यधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र
मानचित्र 7.8 दर्शाता है कि राजस्थान में ज्यादातर भाग विशेषकर अरावली के पश्चिम में स्थित मरुस्थली और गुजरात का कच्छ क्षेत्र अत्यधिक सूखा प्रभावित है। इसमें राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर जिले भी शामिल हैं, जहाँ 90 मिलीलीटर से कम औसत वार्षिक वर्षा होती है।
अधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र
इसमें राजस्थान के पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश के ज्यादातर भाग, महाराष्ट्र के पूर्वी भाग, आंध्र प्रदेश के अंदरूनी भाग. कर्नाटक का पठार, तमिलनाडु के उत्तरी भाग, झारखंड का दक्षिणी भाग और ओडिशा का आंतरिक भाग शामिल है।
मध्यम सूखा प्रभावित क्षेत्र
इस वर्ग में राजस्थान के उत्तरी भाग, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के दक्षिणी जिले, गुजरात के बचे हुए जिले, कोंकण को छोड़कर महाराष्ट्र, झारखंड, तमिलनाडु में कोयंबटूर पठार और आंतरिक कर्नाटक शामिल हैं। भारत के बचे हुए भाग बहुत कम या न के बराबर सूखे से प्रभावित हैं।
सूखे के परिणाम
चारा कम होने की स्थिति को तृण अकाल कहा जाता है। जल आपूर्ति की कमी जल अकाल कहलाती है, तीनों परिस्थितियाँ मिल जाएँ तो त्रि- अकाल कहलाती है सूखा प्रतिरोधी फसलों के बारे में प्रचार-प्रसार सूखे से लड़ने के लिए एक दीर्घकालिक उपाय है। वर्षा जल संलवन (Rain water harvesting) सूखे का प्रभाव कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भूस्खलन
भू-स्खलन कई प्रकार के हो सकते हैं और इसमें चट्टान के छोटे-छोटे पत्थरों के गिरने से लेकर बहुत अधिक मात्रा में चट्टान के टुकड़े और मिटटी का बहाव शामिल हो सकता है तथा इसका विस्तार कई किलोमीटर की दूरी तक हो सकता है।
भूस्खलन भूकंप, ज्वालामुखी फटने, सुनामी और चक्रवात की तुलना में कोई बड़ी घटना नहीं है, परन्तु इसका प्राकृतिक पर्यावरण और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
भूविज्ञान, भूआकृतिक कारक, ढाल, भूमि उपयोग, वनस्पति आवरण और मानव क्रियाकलापों के आधार पर भारत को विभिन्न भूस्खलन क्षेत्रों में बाँटा गया है।
अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्र
ज्यादा अस्थिर हिमालय की युवा पर्वत श्रृंखलाएँ, अंडमान और निकोबार, पश्चिमी घाट और नीलगिरी में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, भूकंप प्रभावी क्षेत्र है ।
अधिक सुभेद्यता क्षेत्र
अधिक भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में भी अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्रों से मिलती-जुलती परिस्थितियाँ हैं। हिमालय क्षेत्र के सारे राज्य और उत्तर-पूर्वी भाग (असम को छोड़कर) इस क्षेत्र में शामिल हैं।
मध्यम और कम सुभेद्यता क्षेत्र
पार हिमालय के कम वृष्टि वाले क्षेत्र लद्दाख और हिमाचल प्रदेश में स्पिती, अरावली पहाड़ियों में कम वर्षा वाला क्षेत्र, पश्चिमी व पूर्वी घाट के व दक्कन पठार के वृष्टि छाया क्षेत्र ऐसे इलाके हैं, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, गोवा और केरल
अन्य क्षेत्र
भारत के अन्य क्षेत्र विशेषकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग जिले को छोड़कर) असम (कार्बी अनलोंग को छोड़कर) और दक्षिण प्रांतों के तटीय क्षेत्र भूस्खलन युक्त हैं।
भूस्खलनों के परिणाम
भूस्खलनों का प्रभाव अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र में पाया जाता है तथा स्थानीय होता है। परन्तु सड़क मार्ग में अवरोध, रेलपटरियों का टूटना और जल वाहिकाओं में चट्टानें गिरने से पैदा हुई रुकावटों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
निवारण
संभावी क्षेत्रों में सड़क और बड़े बाँध बनाने जैसे निर्माण कार्य तथा विकास कार्य पर प्रतिबंध होना चाहिए। इन क्षेत्रों में कृषि नदी घाटी तथा कम ढाल वाले क्षेत्रों तक सीमित होनी चाहिए तथा बड़ी विकास परियोजनाओं पर नियंत्रण होना चाहिए।
आपदा प्रबंधन
भूकंप, सुनामी और ज्वालामुखी की तुलना में चक्रवात के आने के समय एवं स्थान की भविष्यवाणी संभव है। इसके अतिरिक्त आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके चक्रवात की गहनता, दिशा और परिमाण आदि को मॉनीटर करके इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005
इस अधिनियम में आपदा को किसी क्षेत्र में घटित एक महाविपत्ति, दुर्घटना, संकट या गंभीर घटना के रूप में परिभाषित किया गया है, जो प्राकृतिक या मानवकृत कारणों या दुर्घटना या लापरवाही का परिणाम हो और जिससे बड़े स्तर पर जान की क्षति या मानव पीड़ा, पर्यावरण की हानि एवं विनाश हो और जिसकी प्रकृति या परिमाण प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले मानव समुदाय की सहन क्षमता से परे हो।