अध्याय 9 : भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

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 नियोजन

इसमें सोच-विचार की प्रक्रिया कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करना तथा उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु गतिविधियों का क्रियान्वयन सम्मिलित है। इस का इस्तेमाल हम आर्थिक विकास की प्रक्रिया के संदर्भ में करेंगे।

 

 

 भारत में केंद्रीकृत योजनाएँ

भारत में केंद्रीकृत योजनाओं को अपनाया गया, लेकिन धीरे-धीरे विकेंद्रीकृत बहुस्तरीय योजनाओं की और कदम बढ़ाए गए। केंद्र, राज्य तथा जिला स्तर पर योजनाओं को तैयार करने की जिम्मेदारी योजना आयोग की थी। परंतु जनवरी 2015 को योजना आयोग का स्थान नीति आयोग ने ले लिया।

 

केंद्रीय तथा राज्य सरकारों को युक्तिगत तथा तकनीकी सलाह देने के लिए भारत के आर्थिक नीति निर्माण में राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से नीति आयोग स्थापित किया गया है।

 

 

 नियोजन के दो उपगमन होते हैं:

 

1) खंडीय (Sectoral) नियोजन :

खंडीय नियोजन का अर्थ है- अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों, जैसे- कृषि, सिंचाई, विनिर्माण, कर्जा, निर्माण, परिवहन, संचार, सामाजिक अवसंरचना और सेवाओं के विकास के लिए कार्यक्रम बनाना तथा उनको लागू करना।

 

 

2) प्रादेशिक नियोजन :

किसी भी देश में सभी क्षेत्रों में एक समान आर्थिक विकास नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्र बहुत अधिक विकसित हैं तो कुछ पिछड़े हुए हैं। विकास का यह असमान प्रतिरूप (Pattern) सुनिश्चित करता है कि नियोजक एक स्थानिक परिप्रेक्ष्य अपनाएँ तथा विकास में प्रादेशिक असंतुलन कम करने के लिए योजना बनाएँ। इस प्रकार के नियोजन को प्रादेशिक नियोजन कहा जाता है।

 

 

लक्ष्य क्षेत्र नियोजन :

जो क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं उन क्षेत्रों में नियोजन प्रक्रम को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। कभी-कभी संसाधनों से भरपूर क्षेत्र भी पिछड़े रह जाते हैं। आर्थिक विकास के लिए संसाधनों के साथ-साथ तकनीक और निवेश की आवश्यकता होती है

आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असंतुलन प्रबलित हो रहा था। क्षेत्रीय एवं सामाजिक विषमताओं की प्रबलता को काबू में रखने के क्रम में योजना आयोग ने ‘लक्ष्य क्षेत्र’ तथा ‘लक्ष्य-समूह’ योजना उपागमों को प्रस्तुत किया है।

लक्ष्य क्षेत्रों की ओर इंगित कार्यक्रमों के कुछ उदाहरणों में कमान नियंत्रित क्षेत्र विकास कार्यक्रम, सूखाग्रस्त क्षेत्र विकास कार्यक्रम पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम हैं। इसके साथ ही लघु कृषक विकास संस्था (SFDA), सीमांत किसान विकास संस्था (MFDA) आदि कुछ लक्ष्य समूह कार्यक्रम के उदाहरण हैं।

आठवीं पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय क्षेत्रों तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों, जनजातीय एवं पिछड़े क्षेत्रों में अवसंरचना को विकसित करने के लिए विशिष्ट क्षेत्र योजना को तैयार किया गया।

 

 

 

पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम

 

1) पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रमों को पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में प्रारंभ किया गया। और इसके अंतर्गत उत्तर प्रदेश के सारे पर्वतीय जिले (वर्तमान उत्तराखण्ड), मिकिर पहाड़ी और असम की उत्तरी कछार की पहाड़ियाँ, पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग जिला और तमिलनाडु के नीलगिरी आदि को मिलाकर कुल 15 जिले शामिल हैं।

 

2) 1981 में ‘पिछड़े क्षेत्रों पर राष्ट्रीय समिति ने उन सभी पर्वतीय क्षेत्रों को पिछड़े पर्वतीय क्षेत्रों में शामिल करने की सिफ़ारिश की जिनकी ऊँचाई 600 मीटर से अधिक है

 

राष्ट्रीय समिति ने निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर पहाड़ी क्षेत्रों में विकास के लिए सुझाव दिए

 

(1) सभी लोग लाभान्वित हों, केवल प्रभावशाली व्यक्ति ही नहीं;

(2) स्थानीय संसाधनों और प्रतिभाओं का विकास;

(3) जीविका निर्वाह अर्थव्यवस्था को निवेश उन्मुखी बनाना;

(4) अंत: प्रादेशिक व्यापार में पिछड़े क्षेत्रों का शोषण न हो;

(5) पिछड़े क्षेत्रों की बाजार व्यवस्था में सुधार करके श्रमिकों को लाभ पहुँचाना;

(6) पारिस्थिकीय संतुलन बनाए रखना।

ये कार्यक्रम पहाड़ी क्षेत्रों में बागवानी का विकास रोपण कृषि, पशुपालन, मुर्गी पालन, वानिकी, लघु तथा ग्रामीण उद्योगों का विकास करने के लिए स्थानीय संसाधनों को उपयोग में लाने के उद्देश्य से बनाए गए।

 

 

 

 सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम

 

1) इस कार्यक्रम की शुरुआत चौथी पंचवर्षीय योजना में हुई। इसका उद्देश्य सुखा संभावी क्षेत्रों में लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाना और सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए उत्पादन के साधनों को विकसित करना था।

2) प्रारंभ में इस कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे सिविल निर्माण कार्यों पर बल दिया गया जिनमें अधिक श्रमिकों की आवश्यकता होती है।

3)परंतु बाद में इसमें सिंचाई परियोजनाओं, भूमि विकास कार्यक्रमों, वनीकरण, चरागाह विकास और आधारभूत ग्रामीण अवसंरचना जैसे विद्युत, सड़कों, बाज़ार, ऋण सुविधाओं और सेवाओं पर जोर दिया।

4) कार्यक्रम मुख्यतः कृषि तथा इससे संबद्ध सेक्टरों के विकास तक ही सीमित है और पर्यावरणीय संतुलन पुनःस्थापन पर इसमें विशेष बल दिया गया

5) 1967 में योजना आयोग ने देश में 67 जिलों (पूर्ण या आंशिक) की पहचान सूखा संभावी जिलों के रूप में की। 1972 में सिंचाई आयोग ने 30 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र का मापदंड लेकर सूखा संभावी क्षेत्रों का परिसीमन किया ।

6) भारत में सूखा संभावी क्षेत्र मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र, आंध्र प्रदेश के रायलसीमा और तेलंगाना पठार, कर्नाटक पठार और तमिलनाडु की उच्च भूमि तथा आंतरिक भाग के शुष्क और अर्ध-शुष्क भागों में फैले हुए हैं।

 

 

 

भरमौर क्षेत्र में समन्वित जनजातीय – विकास कार्यक्रम

 

भरमौर जनजातीय क्षेत्र —-हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले की दो तहसीलें भरमौर और होली शामिल हैं

21 नवंबर, 1975 से अधिसूचित जनजातीय क्षेत्र

जनजाति – गद्दी

भाषा – गद्दीयाली

गद्दी लोग ऋतु प्रवास करते हैं

 

 

भौगोलिक स्थति :

● जलवायु कठोर है, आधारभूत संसाधन कम हैं

● अर्थव्यवस्था और समाज की निन्न स्थति

● 2011 की जनगणना के अनुसार, भरमौर उपमंडल की जनसंख्या 39,113 थी अर्थात् 21 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर।

● हिमाचल प्रदेश के आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे पिछड़े इलाकों में से एक

● आर्थिक आधार मुख्य रूप से कृषि और इससे संबद्ध क्रियाएँ जैसे भेड़ और बकरी पालन हैं

 

 

 

भरमौर जिले में विकास कार्य :

 

1) भरमौर जनजातीय क्षेत्र में विकास की प्रक्रिया 1970 के परियोजना (आई.टी.डी.पी.) का दर्जा मिला। इस क्षेत्र विकास दशक में शुरू हुई जब गद्दी लोगों को अनुसूचित जनजातियों योजना का उद्देश्य गद्दियों के जीवन स्तर में सुधार करना और में शामिल किया गया।

2) 1974 में पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत जनजातीय उप-योजना प्रारंभ हुई और भरमौर को हिमाचल प्रदेश में पाँच में से एक समन्वित जनजातीय विकास परियोजना (आई.टी.डी.पी.) का दर्जा मिला।

3) इस क्षेत्र विकास योजना का उद्देश्य गद्दियों के जीवन स्तर में सुधार करना और भरमौर तथा हिमाचल प्रदेश के अन्य भागों के बीच में विकास करना।

 4) इसके अंतर्गत परिवहन तथा संचार, कृषि और इस संबंध तथा सामाजिक व सामुदायिक सेवाओं के विकास को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई।

5) इस क्षेत्र में जातीय विकास का सबसे महत्वपूर्ण योगदान विद्यालयों, जन स्वास्थ्य सुविधाओं, पेयजल, सड़कों, संचार और विद्युत के रूप में अवसंरचना विकास है।

6) समन्वित विकास उपयोजना लागू होने से हुए सामाजिक लाभों में साक्षरता दर में तेजी से वृद्धि लिंग अनुपात में सुधार और बाल विवाह में कमी शामिल हैं।

 

 

 

सतत पोषणीय विकास :

 

● विकास’ शब्द से अभिप्राय समाज विशेष की स्थिति और उसके द्वारा अनुभव किए गए परिवर्तन की प्रक्रिया से होता है।

● मानव और पर्यावरण अंतःक्रिया की प्रक्रियाएँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि समाज में किस प्रकार की प्रौद्योगिकी विकसित की है और किस प्रकार की संस्थाओं का पोषण किया है।

● विकास एक बहुआयामी संकल्पना है और अर्थव्यवस्था, समाज तथा पर्यावरण में सकारात्मक व अनुत्क्रमीय परिवर्तन का द्योतक है।

● 1960 के दशक के अंत में पश्चिमी दुनिया में पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर बढ़ती जागरूकता की सामान्य वृद्धि के कारण सतत पोषणीय धारणा का विकास हुआ। इससे पर्यावरण पर औद्योगिक विकास के अनापेक्षित प्रभावों के विषय में लोगों की चिंता प्रकट होती थी।

 

● 1968 में प्रकाशित एहरलिच की पुस्तक ‘द पापुलेशन बम’ और 1972 में मीडोस और अन्य द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द लिमिट टू ग्रोथ’ के प्रकाशन ने इस विषय पर लोगों और विशेषकर पर्यावरणविदों की चिंता और भी गहरी कर दी। इस घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विकास के एक नए माडल जिसे ‘सतत पोषणीय विकास’ कहा जाता है.

पर्यावरणीय मुद्दों पर विश्व समुदाय की बढ़ती चिंता को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘विश्व पर्यावरण और विकास आयोग’ (WECD) की स्थापना की

 

1987 में प्रस्तुत WECD ने सतत पोषणीय विकास की परिभाषा प्रस्तुत की। “एक ऐसा विकास जिसमें भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकता पूर्ति को प्रभावित किए बिना वर्तमान निकलती हैं जबकि मुख्य नहर के दाएँ किनारे पर सभी नहरें पीढ़ी द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति करना। ‘

 

 

 

इंदिरा गांधी नहर कमान क्षेत्र

● 1948 में कँवर सेन द्वारा संकल्पित यह नहर परियोजना 31 मार्च, 1958 को प्रारंभ हुई

● यह नहर पंजाब में हरिके बाँध से निकलती है और राजस्थान के थार मरुस्थल ( मरुस्थली) पाकिस्तान सीमा के समानांतर 40 कि.मी. की औसत दूरी पर बहती है।

● इस नहर तंत्र की कुल नियोजित लंबाई 9060 कि. मी. है और यह 19.63 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य कमान क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा प्रदान करेगी। कुल कमान क्षेत्र में से 70 प्रतिशत क्षेत्र प्रवाह नहर तंत्रों और शेष क्षेत्र लिफ्ट तंत्र द्वारा किया जाएगा।

 

 

नहर का निर्माण कार्य दो चरणों में हुआ ।

चरण-I के कमान क्षेत्र में सिंचाई की शुरुआत 1960 के दशक के आरंभ में हुई, चरण-I का कमान क्षेत्र गंगानगर, हनुमानगढ़ और बीकानेर जिले के उत्तरी भाग में पड़ता है। इस चरण के कमान क्षेत्र का भूतल थोड़ा ऊबड़-खाबड़ है और इसका कृषि योग्य कमान क्षेत्र 5.53 लाख हेक्टेयर है

 

चरण-II कमान क्षेत्र में 1980 के दशक के मध्य में सिंचाई आरंभ हुई। चरण-II का कमान क्षेत्र बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, नागौर और चुरू जिलों में 14.10 लाख हेक्टेयर कृषियोग्य भूमि पर फैला हुआ है।

 

 

इंदिरा गांधी नहर से सकारात्मक प्रभाव :

 

● नहर सिंचाई के प्रसार ने इस शुष्क क्षेत्र की पारिस्थितिकी, अर्थव्यवस्था और समाज को रूपांतरित कर दिया है

● लंबी अवधि तक मृदा नमी उपलब्ध होने और कमान क्षेत्र विकास के तहत शुरू किए गए वनीकरण और चरागाह विकास कार्यक्रमों से यहाँ भूमि हरी भरी हो गई है।

● नहरी सिंचाई के प्रसार से इस प्रदेश की कृषि अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष रूप में रूपांतरित हो गई है।

● क्षेत्र में सफलतापूर्वक फ़सलें उगाने के लिए मृदा नमी सबसे महत्वपूर्ण सीमाका कारक रहा है

● यहाँ की पारंपरिक फ़सलों, चना, बाजरा और ग्वार का स्थान गेहूँ, कपास, मूँगफली और चावल ने ले लिया है। यह सघन सिंचाई का परिणाम है।

 

 

नकारात्मक प्रभाव

वायु अपरदन और नहरी तंत्र में बालू निक्षेप की प्रक्रियाएँ भी धीमी पड़ गई हैं। परंतु सघन सिंचाई और जल के अत्यधि क प्रयोग से जल भराव और मृदा लवणता की दोहरी पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गई।

 

 

 

 सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले उपाय :

 

1) जल प्रबंधन नीति का कठोरता से कार्यान्वयन करना।

2) क्षेत्र के शस्य प्रतिरूप में सामान्यतः जल सघन फ़सलों को नहीं बोया जाना चाहिए। इसका पालन करते हुए किसानों का बागाती कृषि के अंतर्गत खट्टे फलों की खेती करनी चाहिए।

3) कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम जैसे नालों को पक्का करना, भूमि विकास तथा समतलन और वारबंदी (ओसरा) पद्धति प्रभावी रूप से कार्यान्वित की जाए

4) इस प्रकार जलाक्रांत एवं लवण से प्रभावित भूमि का पुनरूद्धार किया जाएगा

 5) वनीकरण वृक्षों का रक्षण मेखला ( shelterbelt) का निर्माण और चरागाह विकास।

6) निर्धन आर्थिक स्थिति वाले भूआवंटियों को कृषि के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्तीय और संस्थागत सहायता उपलब्ध करवाई जाए।

7) कृषि और इससे संबंधित क्रियाकलापों को अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टरों के साथ विकसित करना पड़ेगा

 

 

 

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