अध्याय 9 : सौर विकिरण, ऊष्मा संतुलन और तापमान

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 सौर विकिरण

 

सूर्यातप :

पृथ्वी के पृष्ठ पर प्राप्त होने वाली ऊर्जा का अधिकतम अंश लघु तरंगदैर्ध्य के रूप में आता है। पृथ्वी को प्राप्त होने वाली ऊर्जा को ‘आगमी सौर विकिरण’ या छोटे रूप में ‘सूर्यातप’ (Insolation) कहते हैं।

 

 

 

ऊष्मा की मात्रा :

पृथ्वी भू-आभ (Geoid) है। सूर्य की किरणें वायुमंडल के ऊपरी भाग पर तिरछी पड़ती है, जिसके कारण पृथ्वी सौर ऊर्जा के बहुत कम अंश को ही प्राप्त कर पाती है। पृथ्वी औसत रूप से वायुमंडल की ऊपरी सतह पर 1.94 कैलोरी/प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रतिमिनट ऊर्जा प्राप्त करती है।

 

अपसौर : पृथ्वी 4 जुलाई को सूर्य से सबसे दूर अर्थात् 15 करोड़, 20 लाख किलोमीटर दूर होती है। पृथ्वी की इस स्थिति को अपसौर (Aphelion) कहा जाता है।

उपसौर : 3 जनवरी को पृथ्वी सूर्य से सबसे निकट अर्थात् 14 करोड़ 70 लाख किलोमीटर दूर होती है। इस स्थिति को ‘उपसौर’ (Perihelion) कहा जाता है।

पृथ्वी द्वारा प्राप्त वार्षिक सूर्यातप (insolation) 3 जनवरी को 4 जुलाई की अपेक्षा अधिक होता है

 

 

 

 

पृथ्वी की सतह पर सूर्यातप में भिन्नता के कारक :

 

(i) पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना

(ii) सूर्य की किरणों का नति कोण

(iii) दिन की अवधि

(iv) वायुमंडल की पारदर्शिता

(v) स्थल विन्यास ।

परंतु अंतिम दो कारकों का प्रभाव कम पड़ता है।

 

 

 

 सूर्यतप की मात्रा :

 

1) पृथ्वी का अक्ष सूर्य के चारों ओर परिक्रमण की समतल कक्षा से 66½° का कोण बनाता है, जो विभिन्न अक्षांशों पर प्राप्त होने वाले सूर्यातप की मात्रा को बहुत प्रभावित करता है

 

2) सूर्यातप की मात्रा को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक किरणों का नति कोण है। यह किसी स्थान के अक्षांश पर निर्भर करता है।

 

3) तिरछी किरणों की अपेक्षा सीधी किरणें कम स्थान पर पड़ती हैं। किरणों के अधिक क्षेत्र पर पड़ने के कारण ऊर्जा वितरण बड़े क्षेत्र पर होता है तथा प्रति इकाई क्षेत्र को कम ऊर्जा मिलती है।

 

 

 

सौर विकिरण का वायुमंडल से होकर गुजरना

 

पृथ्वी की सतह पर पहुँचने से पहले सूर्य की किरणें वायुमंडल से होकर गुजरती हैं। क्षोभमंडल में मौजूद जलवाष्प ओजोन तथा अन्य किरणें अवरक्त विकिरण (Infrared radiation) को अवशोषित कर लेती हैं। क्षोभमंडल में छोटे निलंबित कण दिखने वाले स्पेक्ट्रम को अंतरिक्ष एवं पृथ्वी की सतह की ओर विकीर्ण कर देते हैं।

 

 

 

सूर्यातप का पृथ्वी की सतह पर स्थानिक वितरण

धरातल पर प्राप्त सूर्यातप की मात्रा में उष्ण कटिबंध में 320 वाट/प्रति वर्गमीटर से लेकर ध्रुवों पर 70 वाट/प्रति वर्गमीटर तक भिन्नता पाई जाती है।

● सबसे अधिक सूर्यातप उपोष्ण कटिबंधीय मरुस्थलों पर प्राप्त होता है,

● उष्ण कटिबंध की अपेक्षा विषुवत् वृत्त पर कम मात्रा में सूर्यातप प्राप्त होता है।

● सामान्यतः एक ही अक्षांश पर स्थित महाद्वीपीय भाग पर अधिक और महासागरीय भाग में अपेक्षतया कम मात्रा में सूर्यातप प्राप्त होता है

● शीत ऋतु में मध्य एवं उच्च अक्षांशों पर ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा कम मात्रा में विकिरण प्राप्त होता है

 

 

 

 वायुमंडल का तापन एवं शीतलन

 

● प्रवेशी सौर विकिरण से गर्म होने के बाद पृथ्वी सतह के निकट स्थित वायुमंडलीय परतों में दीर्घ तरंगों के रूप में ताप का संचरण करती है,

 

चालन : पृथ्वी के संपर्क में आने वाली वायु धीरे-धीरे गर्म होती है। निचली परतों के संपर्क में आने वाली वायुमंडल की ऊपरी परतें भी गर्म हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को चालन (Conduction) कहा जाता है।

 

● गर्म पिंड से ठंडे पिंड की ओर ऊर्जा का प्रवाह चलता है। ऊर्जा का स्थानांतरण तक तब होता रहता है जब तक दोनों पिंडों का तापमान एक समान नहीं हो जाता

संवहन : पृथ्वी के संपर्क में आई वायु गर्म होकर धाराओं के रूप में लंबवत् उठती है और वायुमंडल में ताप का संचरण करती है। वायुमंडल के लम्बवत् तापन की यह प्रक्रिया संवहन (Convection) कहलाती है, ऊर्जा के स्थानांतरण का यह प्रकार केवल क्षोभमंडल तक सीमित रहता है।

अभिवहन : वायु के क्षैतिज संचलन से होने वाला ताप का स्थानांतरण अभिवहन (Advection) कहलाता है।

लम्बवत् संचलन की अपेक्षा वायु का क्षैतिज संचलन सापेक्षिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण होता है।

 

 

 

पार्थिव विकिरण :

पृथ्वी द्वारा प्राप्त प्रवेशी सौर विकिरण, जो लघु तरंगों के रूप में होता है, पृथ्वी की सतह को गर्म करता है। पृथ्वी स्वयं गर्म होने के बाद एक विकिरण पिंड बन जाती है और वायुमंडल में दीर्घ तरंगों के रूप में ऊर्जा का विकिरण करने लगती है। यह ऊर्जा वायुमंडल को नीचे से गर्म करती है। इस प्रक्रिया को ‘पार्थिव विकिरण’ कहा जाता है।

 

 

 

पृथ्वी के ऊष्मा बजट का वर्णन

वायुमंडल की ऊपरी सतह को 100 इकाई सूर्यातप प्राप्त होता है । इसका विवरण इस प्रकार है

 

• सूर्यातप का विकिरण :-

सौर विकिरण की परावर्तित मात्रा को एल्बिड़ा ( Albedo ) कहा जाता है ।

 

1) 16 % धूल कण और वाष्प कणों द्वारा अवशोषित होता है ।

2) 3 % बादलों द्वारा अवशोषित होता है ।

3) 6 % वायु द्वारा परावर्तित हो जाता है ।

4) 20% बादलों द्वारा परावर्तित हो जाता है ।

5) 4 % जल और स्थल द्वारा परावर्तित हो जाता ह

6) 51% सूर्यातप पृथ्वी पर जल और स्थल द्वारा अवशोषित होता है ।

33 + 16 = 49 इकाईयाँ

 

पार्थिव विकिरण :- 51% इकाइयों में से

1) 17% इकाईयाँ सीधे अंतरिक्ष में चली जाती हैं ।

2) 6 % वायुमंडल द्वारा अवशोषित होती हैं ।

3) 9 % संवहन के जरिए अवशोषित होता है।

4) 19 % संघनन की गुप्त उष्मा के रूप में ।

17 + 6 + 9 + 19 = 51 इकाईयाँ

 

 

तापमान के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक :-

 

• उष्मा किसी पदार्थ के कणों में अणुओं की गति को दर्शाती है, वही तापमान किसी पदार्थ या स्थान के गर्म या ठण्डा होने को दर्शाता है जिसे डिग्री में मापते हैं। किसी भी स्थान पर वायु का तापमान निम्नलिखित कारकों द्वारा प्रभावित होता है :

 

अक्षांश :- किसी भी स्थान का तापमान उस स्थान द्वारा प्राप्त सूर्यातप पर निर्भर करता है । सूर्यातप की मात्रा में अक्षांश के अनुसार भिन्नता पाई जाती है ।

 

• उत्तुंगता या ऊँचाई :- वायुमण्डल पार्थिव विकिरण के द्वारा नीचे से ऊपर की ओर गर्म होता है । यही कारण है कि समुद्र तल के पास के स्थानों पर तापमान अधिक तथा ऊँचे भाग में स्थित स्थानों पर तापमान कम होता है ।

 

समुद्र से दूरी :- किसी भी स्थान के तापमान को प्रभावित करने वाला दूसरा महत्वपूर्ण कारक समुद्र से उस स्थान की दूरी है । स्थल की अपेक्षा समुद्र धीरे- धीरे गर्म और धीरे – धीरे ठण्डा होता है । समुद्र के निकट स्थित क्षेत्रों पर समुद्र एंव स्थल समीर का सामान्य प्रभाव पड़ता है ।

 

वायुसंहति या वायु राशि तथा महासागरीय धाराएं :- वायु राशि भी तापमान को प्रभावित करती है । कोष्ण वायु सहतियों से प्रभावित होने वाले स्थानों का तापमान अधिक तथा ठंडी वायु संहतियों से प्रभावित स्थानों का तापमान कम होता है । इसी प्रकार महासागरीय धाराओं का प्रभाव भी तापमान पर पड़ता है ।

 

 

तापमान का व्युत्क्रमण :-

• वायुमण्डल की सबसे निचली परत क्षोभमण्डल जो पृथ्वी के धरातल से सटी हुई है, में ऊचाई के साथ सामान्य परिस्थितियों में तापमान 1 घटता है । परन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में ऊचाई के साथ तापमान घटने के स्थान पर बढ़ता है। ऊंचाई के साथ तापमान के बढ़ने को व्युत्क्रमण कहते हैं । स्पष्ट है कि तापमान के प्रतिलोमन में धरातल के समीप ठंडी वायु तथा ऊपर की और गर्म वायु होती है ।

 

 

व्युत्क्रमण के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाएँ :-

• तापमान के व्युत्क्रमण के लिए निम्नलिखित भौगोलिक परिस्थितियाँ सहयोगी होती हैं : :-

लम्बी रातें:- पृथ्वी दिन के समय ताप ग्रहण करती है तथा रात के समय ताप छोड़ती है । रात्रि के समय ताप छोड़ने से पृथ्वी ठण्डी हो जाती है। और पृथ्वी के आस • पास की वायु भी ठण्डी हो जाती है तथा उसके ऊपर की वायु अपेक्षाकृत गर्म होती है ।

स्वच्छ आकाश :- भौमिक विकिरण द्वारा पृथ्वी के ठण्डा होने के लिए स्वच्छ अथवा मेघरहित आकाश का होना अति आवश्यक है, मेघ, विकिरण में बाधा डालते हैं तथा पृथ्वी एवं उसके साथ लगने वाली वायु को ठण्डा होने से रोकते हैं ।

 

शान्त वायु :- वायु के चलने से निकटवर्ती क्षेत्रों के बीच ऊष्मा का आदान प्रदान होता है। जिससे नीचे की वायु ठण्डी नहीं हो पाती और तापमान का व्युत्क्रमण नहीं हो पाता ।

 शुष्क वायु :- शुष्क वायु में ऊष्मा को ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है। जिससे तापमान की हास दर में कोई परिवर्तन नहीं होता । परन्तु शुष्क वायु भौमिक विकिरण को शोषित नहीं कर सकती । अतः ठण्डी होकर तापमान के व्युत्क्रमण की स्थिति पैदा करती है ।

हिमाच्छादन :- हिम, सौर विकिरण के अधिकांश भाग को परावर्तित कर देती है। जिससे वायु की निचली परत ठंडी रहती है और तापमान का व्युत्क्रमण होता है । क्षेत्रों में साल भर व्युत्क्रमण होता है ।

 

 

तापमान सामान्य हास दर :-

• ऊँचाई बढ़ने के साथ – साथ तापमान कम होता चला जाता है । 1000 मी. की ऊँचाई पर तापमान में 6.5 ° डिग्री सेल्सियस की कमी हो जाती हैं। इसे ही तापमान की सामान्य हास दर कहते हैं ।

 

 

 

जुलाई तथा जनवरी की समताप रेखाओं की विशेषताएं :-

 

जनवरी :-

• जनवरी में समताप रेखाएं महासागरों में उत्तर तथा महाद्वीपों पर दक्षिण की ओर झुक जाती हैं । जनवरी का माध्य मासिक तापमान विषुवत रेखीय महासागरों पर 27°C से ज्यादा होता है, उष्ण कटिबंधों में 24°C से ज्यादा, मध्य अक्षांशों पर 20 ° C से 0 ° डिग्री सेल्सियस एंव यूरेशिया के आंतरिक भाग में – 18° सेल्सियस से 48 सेल्सियस तक अंकित किया जाता है ।

• दक्षिणी गोलार्द्ध में तापमान भिन्नता कम होती है क्योंकि वहाँ जल भाग ज्यादा है इसलिए समताप रेखाएँ लगभग अक्षांशों के समान्तर चलती है ।

 

 

जुलाई :-

• इस मौसम में समताप रेखाएँ उष्ण कटिबंध में 30 ° सेल्सियस से अधिक के कोष्ठ का निर्माण महाद्वीपों के भीतर करती है। यहाँ 40° उत्तरी तथा दक्षिणी अंक्षाशों पर 10 ° सेल्सियस की समताप रेखाएँ देखी जाती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध की समताप रेखाएँ उत्तर की अपेक्षा ज्यादा सरल व सीधी देखी जाती हैं । जुलाई में समताप रेखाएं महाद्वीपों पर प्रवेश करते हुए उत्तर की ओर तथा महासागरों में प्रवेश करते हुए दक्षिण की ओर मुड़ जाती हैं ।

 

 

 

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