
★ उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण एक समीक्षा ★ ● ◆
उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण एक समीक्षा Notes In Hindi जिसमे हम उदारीकरण निजीकरण, वैश्वीकरण, भारतीय अर्थव्यवस्था सुधारों का दौर आदि के बारे में पढ़ेंगे
इस अध्याय को बढ़ने के बाद हम 1991 में भारत में आरंभ की गई सुधार नीतियों की पृष्ठभूमि से जानकार होंगे, साथ में सुधार नीतियों को आरंभ किये जाने की क्या – क्या प्रक्रिया थी उन्हें समझेंगे |
★ परिचय :- भारत को वर्ष 1991 में विदेशी ऋण संकट का सामना करना पड़ा। देश के पास आवश्यक वस्तुओं के आयात हेतु विदेशी मुद्रा रिजर्व का अभाव हो गया। इन संकटों का सामना करने हेतु सरकार ने कुछ नई नीतियों को अपनाया जिसके फलस्वरूप हमारी विकास रणनीतियों की सम्पूर्ण दिशा बदल गई।
● आप फिर इसके बाद वैश्वीकरण की प्रक्रिया और भारत के लिए इसके फंसाव के बारे में जानेंगे |
● अलग – अलग क्षेत्रको पर सुधार नीतियों के प्रभावों को जानेंगे |
● स्वतंत्रता के बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढांचे को अपनाया |
● इसमें पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताओं के साथ समाजवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताएं भी थी |
● कुछ विद्वानों का तर्क यह है कि इन वर्षों में इस व्यवस्था के नियमन और नियंत्रण के लिए इतने सारे नियम – कानून बनाए गए कि उनसे अर्थिक संवृद्धि और विकास की समूची प्रक्रिया ही अवरुद्ध हो गई |
● वर्ष 1991 में भारत को विदेशी ऋणों के मामले में कठिन परिस्तिथियों का सामना करना पड़ा |
● यह सभी कारणों के वजह से सरकार ने कुछ नई नीतियों को अपनाया जो हमारे विकास रण-नीति की संपूर्ण दिशा को ही बदल दिया |
★ पृष्टभूमि :-
● 1980 के दशक तक भारतीय अर्थव्यवस्था की अकुशल प्रबंधन ने वित्तीय संकट उत्पन्न कर दिया |
● सामान्य शासन चलाने और अपनी अलग – अलग नीतियों के क्रियान्वयन के लिए सरकार कर ( टैक्स ) और सार्वजनिक उधम आदि इनका आय का स्रोत है |
● जब खर्च आय से अधिक होने लगा तो सरकार बैंक, जनसामान्य तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से उधार लेने के लिए मजबूर हो गई |
● इस तरह वह अपने घाटे का वित्तीय प्रबंधन कर लेती है |
★ विदेशी मुद्रा :- विदेशी मुद्रा से तात्पर्य यह है कि विदेशी मुद्रा विनिमय लेनदेन है जैसे कि वह जगह जहाँ एक मुद्रा को दूसरी मुद्रा के लिए बेचा जाए |
● 1980 के दशक के अंत तक सरकार का खर्च उसके राजस्व से इतना ज्यादा अधिक हो गया कि ऋण के द्वारा खर्च धारण क्षमता से अधिक माना जाने लगा |
● सारे वस्तुओं के दाम तेजी से बढ़ने लगे |
● विदेशी मुद्रा के सुरक्षित भंडार इतने कमजोर हो गए थे कि देश की दो सप्ताह की आयात आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते थे |
● अंतर्राष्ट्रीय उधारदाताओं की ब्याज चुकाने के लिए भारत सरकार के पास विदेशी मुद्रा नहीं बची थी|
● ये सब समस्या के कारण अब कोई देश या अंतर्राष्ट्रीय निवेशक भी भारत में निवेश नहीं करना चाहता था |
● उस स्थिति में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण , विकास बैंक ( आई. बी. आर. डी. ) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहायता ली|
● जिनसे उन्हें 7 बिलियन डॉलर का ऋण उस संकट का सामना करने के लिए मिला |
◆लेकिन ऋण देने के समय इन संस्थाओं ने भारत सरकार पर कुछ शर्तें लगाई जो निम्न है :-
1. सरकार को उदारीकरण करना पड़ेगा
2. निजी क्षेत्र पर लगे प्रतिबंधों को हटाएगी
3. अनेक क्षेत्रों में सरकार हस्ताक्षेप कम करेगी |
4. भारत और अन्य देशों के बीच विदेशी व्यापार पर लगे प्रतिबंध भी हटाए जायेंगे |
● भारत सरकार ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की ये सारी शर्तें मान ली और नई आर्थिक नीति की घोषणा की |
● आई. बी. आर. डी. ( विकास बैंक ) इसे विश्व बैंक के नाम से भी जाना जाता है |
● इस नई आर्थिक नीति में व्यापक आर्थिक सुधारों को शामिल किया गया |
◆ इन नीतियों का उद्देश्य निम्नलिखित है :-
▪︎ अर्थव्यवस्था में अधिक स्पर्धापूर्ण व्यावसायिक वातावरण की रचना करना |
▪︎ फर्मों के व्यापार में प्रवेश करना |
▪︎ उनकी संवृद्धि में आनेवाली बाधाओं को दूर करना था |
◆ इन नीतियों को दो उपसमूहो में वर्गीकृत किया जा सकता है :-
1. स्थायित्वकारी उपाय
2. संरचनात्मक सुधार के उपाय |
★ स्थायित्वकारी :- स्थायित्वकारी उपाय का अर्थ यह है कि जितने भी विदेशी मुद्रा हमारे पास मौजूद थी उसे भंडार बनाए रखना और बढ़ती हुई दामों पर अंकुश रखना |
● स्थायित्वकारी उपाय कम समय तक का ही होता है |
◆ स्थायित्वकारी उपाय का उद्देश्य निम्न है:-
1. भुगतान संतुलन में आ गई कुछ त्रुटियों को दूर करना |
2. मुद्रास्फीति का नियंत्रण करना |
★संरचनात्मक सुधार :- संरचनात्मक सुधार यह उपाय लंबे समय तक का होता है |
◆इसका उद्देश्य निम्न है :-
1. भारत की अर्थव्यवस्था की कुशलता को सुधरना |
2. अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रको की अनम्यताओं को दूर कर भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा क्षमता को बढ़ाना |
★ इस दृष्टि से सरकार ने अनेक नीतियां शुरू की, इनके तीन उपवर्ग है:-
▪︎ उदारीकरण
▪︎ निजीकरण
▪︎ वैश्वीकरण |
★ उदारीकरण:- उदारीकरण का मतलब यह है कि देश की आर्थिक विकास में बाधा पहुंचाने वाली नीतियों , प्रतिबंधों , नियंत्रण, नियमों प्रक्रिया आदि को खत्म करना , ताकि आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले |
● औद्योगिक क्षेत्रकका विनियमीकरण :- इसके अन्तर्गत औद्योगिक लाइसेन्सिंग नीति का सरलीकरण किया गया। नई आर्थिक नीति में कई प्रतिबन्धित उद्योगों को निजी क्षेत्र हेतु खोला गया। अधिकांश उद्योगों हेतु लाइसेन्स की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई। सार्वजनिक क्षेत्रक को बहुत सीमित कर दिया गया। लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ अब अनारक्षित श्रेणी में आ गईं।
● वित्तीय क्षेत्रक सुधार :- नई आर्थिक नीति के अन्तर्गत वित्तीय क्षेत्र में सुधार हेतु अनेक कदम उठाए गए। रिजर्व बैंक की नियन्त्रक की भमिका से एक सहायक की भूमिका तक सीमित कर दिया गया। भारत में निजी एवं विदेशी बैंकों को अनुमति प्रदान की गई। बैंकों में विदेशी पूँजी निवेश सीमा में वृद्धि की गई। विभिन्न विदेशी निवेश संस्थाओं, व्यापारिक बैंकों, म्युचुअल फण्ड तथा पेंशन कोष आदि हेतु भारतीय अर्थव्यवस्था को खोल दिया गया।
● कर व्यवस्था में सुधार:- उदारीकरण के फलस्वरूप कर व्यवस्था में भी सुधार किए गए। आयकर की दरों में 1991 के पश्चात् निरन्तर कमी की गई, साथ ही निगम कर की दर को भी कम किया गया। इन आर्थिक सुधारों में अप्रत्यक्ष करों में भी सुधार हेतु प्रयास किए गए। नवीन नीति में कर प्रक्रियाओं को भी सरल बनाया गया।
● विदेशी विनिमय सुधार :- वर्ष 1991 में भुगतान सन्तुलन की समस्या के निदान हेतु भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन किया गया। विदेशी विनिमय बाजार में रुपये के मूल्य के निर्धारण को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त किया गया।
● व्यापार एवं निवेश नीति में सुधार :- इस नीति में अर्थव्यवस्था में औद्योगिक उत्पादों और विदेशी निवेश तथा प्रौद्योगिकी की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की क्षमता को प्रोत्साहित करने के लिए व्यापार और निवेश व्यवस्थाओं का उदारीकरण प्रारम्भ किया गया। आन्तरिक उद्योगों को संरक्षण देने हेतु आयातों पर प्रतिबन्ध लगाए गए थे किन्तु नई नीति के फलस्वरूप इन प्रतिबन्धों को समाप्त किया गया। आयात लाइसेन्स व्यवस्था को समाप्त किया गया, साथ ही | निर्यात-शुल्क भी हटाया गया।
★ निजीकरण :- निजीकरण का तात्पर्य किसी सार्वजनिक उपक्रम के स्थायित्व या प्रबन्ध का सरकार द्वारा त्याग करने से है। इसके अन्तर्गत सरकार अपना स्वामित्व विनिवेश प्रक्रिया के तहत निजी क्षेत्र को बेच देती है। विनिवेश का मुख्य ध्येय वित्तीय अनुशासन बढ़ाना और आधुनिकीकरण में सहायता देना था।
★ वैश्वीकरण :- वैश्वीकरण से तात्पर्य देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करना है। इसका उद्देश्य विश्व को परस्पर निर्भर और अधिक एकीकृत करना है। वैश्वीकरण के अन्तर्गत कम्पनियाँ किसी बाहरी स्रोत (संस्था) से नियमित सेवाएँ प्राप्त करती हैं, इसे बाह्य प्रापण की प्रक्रिया कहा जाता है। संचार साधनों के विकास से यह प्रक्रिया काफी सुदृढ़ हो गई। कई विकसित देशों की कम्पनियाँ भारतीय कम्पनियों से भी ये सेवाएँ प्राप्त करती हैं।
★ विश्व व्यापार संगठन :- व्यापार और सीमा शुल्क महासन्धि (GATT) को वर्ष 1995 में बदल कर विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना की गई। इस संगठन का उद्देश्य विश्व व्यापार को बढ़ावा देना है तथा विश्व व्यापार के मार्ग में आने वाली रुकावटों को दूर करना है।
◆ कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रक है जहाँ सुधार किया गया वो निम्नलिखित है:-
● औद्योगिक क्षेत्रक, वित्तीय क्षेत्रक, कर -सुधार, व्यापार, निवेश क्षेत्रक तथा विदेशी विनिमय बाजार |
● ये सभी क्षेत्रक पर 1991 में और 1991 के बाद विशेष ध्यान दिया गया था |
◆ औद्योगिक क्षेत्रक का विनियमीकरण :- भारत देश में नियमन प्रणालियों को अलग – अलग तरीके से लागू किया गया था |
1. सबसे पहले औद्योगिक लाइसेंस की व्यवस्था थी, जिसमें उद्यमी को एक फर्म स्थापित करने, बंद करने या उत्पादन की मात्रा का निर्धारण करने के लिए किसी न किसी सरकारी अधिकारी की अनुमति प्राप्त करनी होती थी |
2. अनेक उद्योगों में तो निजी उद्यमियों का प्रवेश ही रोक दिया गया था |
3. कुछ वस्तुओं का उत्पादन केवल लघु उद्योग ही कर सकते थे और सभी निजी उद्यमियों को कुछ औद्योगिक उत्पादों की कीमतों के निर्धारण तथा वितरण के बारे में भी अनेक नियंत्रणो का पालन करना पड़ता था |
● 1991 के बाद से आरंभ हुई सुधार नीतियों ने इनमे से अनेक प्रतिबंधों को खत्म कर दिया |
● एल्कोहल, सिगरेट, औद्योगिक विस्फोटकों, इलेक्ट्रॉनिकी, विमानन जोखिम भरे रसायनों तथा औषधि भेषज इन सभी को छोड़ के अन्य सभी उद्योग के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया |
● सार्वजनिक क्षेत्रक के लिए सुरक्षित उद्योग में भी केवल प्रतिरक्षा उपकरण के कुछ अंश, परमाणु ऊर्जा उत्पादन और रेल परिवहन ही बचे हैं |
● लघु उद्योग द्वारा उत्पादित अनेक वस्तुएँ अब अनारक्षित श्रेणी में आ गई |
★ वित्तीय क्षेत्रक सुधार :-
● वित्तीय क्षेत्रक सुधार में व्यावसायिक और निवेश बैंक, स्टॉक एक्सचेंज तथा विदेशी मुद्रा जैसी वित्तीय संस्थाएं शामिल हैं |
● भारत में वित्तीय क्षेत्रक का नियमन रिजर्व बैंक का दायित्व है |
● भारतीय रिजर्व बैंक के विभिन्न नियम और कसौटियों के माध्यम से ही बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों कार्य का नियंत्रण होता है |
● रिजर्व बैंक ही तय करता है कि कोई बैंक अपने पास कितनी मुद्रा जमा रख सकता है और यही ब्याज दरों को नियत करता है |
● अलग – अलग क्षेत्रको को उधार देने की प्रकृति भी यही तय करता है |
● वित्तीय क्षेत्रक सुधार नीतियों का एक प्रमुख उद्देश्य यह भी है कि रिजर्व बैंक को इस क्षेत्रक के नियंत्रक की भूमिका से हटाकर उसे सहायक की भूमिका तक सीमित कर दिया गया है |
● बैंकों की पूँजी में विदेशी भागीदारी की सीमा 74 प्रतिशत कर दी गई |
● विदेशी निवेश संस्थाओ ( एफ:आई:आई ) तथा व्यापारी बैंक,म्यूचुअल फंड और पेंशन कोष आदि को भी अब भारतीय वित्तीय बाजारों में निवेश की अनुमति मिल गई है |
★ कर व्यवस्था में सुधार :-
● इन सुधारों का संबंध सरकार की कराधान और सार्वजनिक व्यय नीतियों से है |
● जिन्हें सामुहिक रूप से राजकोषीय नीतियाँ भी कहा जाता है |
◆करो के दो प्रकर होते हैं, जो निम्न है :-
▪︎ प्रत्यक्ष कर
▪︎अप्रत्यक्ष कर
★ प्रत्यक्ष कर :- प्रत्यक्ष कर से अभिप्राय यह है कि यह कर व्यवसायों और लोगों के आय पर लगाया जाता है | इस कर में समय पर टैक्स न देने पर जुर्माना और कारावास लगाया जा सकता है |
● यह कर धन और आय पर ही लगाया जाता है |
★ अप्रत्यक्ष कर :- अप्रत्यक्ष कर से अभिप्राय यह है कि यह कर वस्तुओं और सेवाओं पर लगाया जाता है |
● अप्रत्यक्ष करों की देखभाल सीमा शुल्क बोर्ड और केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर करता है |
● वर्ष 2016 में, अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को एकीकृत एवं सरल बनाने के लिए भारतीय संसद द्वारा वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम 2016 में ( जी. एस. टी ) कानून को पारित किया गया |
● यह कानून जुलाई 2017 से लागू हुआ |
◆ इस कानून के द्वारा सरकार को बहुत आशा है, जो निम्नलिखित हैं :-
1. अतिरिक्त आय प्राप्त होने की
2. कर वंचन कम होने की
3. ‘ एक राष्ट्र, एक टेक्स, एक बाजार का निर्माण होने की |
★ विदेशी विनिमय :- विदेशी विनिमय से कहने का तात्पर्य यह है कि यह वह प्रणाली है जिसकी मदद से व्यापारिक राष्ट्र पारस्परिक ऋणों का भुगतान करते हैं |
● विदेशी विनिमय को स्वदेशी मुद्रा का बाह्य मूल्य भी कहा जाता है |
◆ विदेशी विनिमय सुधार :
● विदेशी क्षेत्रक में पहला सुधार विदेशी विनिमय बाजार में किया गया था |
★ अवमूल्यन :- अवमूल्यन से यह अभिप्राय है कि जब कोई देश मुद्रा की विनिमय दर अन्य देशों की मुद्राओं से कम कर दिया जाता है ताकि निवेश को बढ़ावा मिल सके तो उसे अवमूल्यन कहते है |
● 1991 में भुगतान संतुलन की समस्या के उसी समय निदान के लिए अन्य देशों की मुद्रा की तुलना में रुपये का अवमूल्यन किया गया |
● इससे देश में विदेशी मुद्रा के आगमन में वृद्धि हुई |
● अब प्राय : बाजार ही विदेशी मुद्रा की मांग और पूर्ति के आधार पर विनिमय दरों को निर्धारित कर रहा है |
★ व्यापार और निवेश नीति सुधार :-
● अर्थव्यवस्था में औद्योगिक उत्पादों और विदेशी निवेश तथा प्रौद्योगिकी की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की क्षमता को प्रोत्साहित करने के लिए व्यापार और निवेश व्यवस्थाओं का उदारीकरण शुरू किया गया |
● इस कार्यक्रम का एक उद्देश्य स्थानीय उद्योगों की कार्यकुशलता को सुधारना और उन्हें आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना भी था |
◆ व्यापार नीतियों के सुधारों के कुछ लक्ष्य थे, जो निम्न है :-
1. आयात और निर्यात पर परिमाणत्मक प्रतिबंधों की समाप्ति
2. प्रशुल्क दरों में कटौती

3. आयातों के लिए लाइसेंस प्रक्रिया की समाप्ति |
★ सुधारकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था :- एक समीक्षा-वर्ष 1991 में हुई आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया का अर्थव्यवस्था पर कई प्रकार से प्रभाव पड़ा, जैसे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि हुई है, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा विनिमय रिजर्व में तेजी से वृद्धि हुई है, भारत कई उत्पादों के निर्यातक के रूप में उभरा है आदि। आर्थिक सुधारों के अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़े।