अध्याय 4 : सामाजिक न्याय / Social Justice

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सामाजिक न्याय न्याय के प्रकार सामाजिक राजनितिक आर्थिक कानूनी  वैधानिक सामाजिक न्याय की स्थापना के तीन सिद्धांत रॉल्स का न्याय सिद्धांत मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप मुक्त बाजार के पक्ष मुक्त बाजार के विपक्ष भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना के लिये उठाये गये कदम संविधान एवं सामाजिक न्याय

 

 ★ सामाजिक न्याय :-

 ● न्याय राजनीतिक दर्शन की एक ऐसी बुनियादी धारणा है, जि पर राजनीतिक चिन्तन के प्रारम्भ से ही विचार होता रहा है इतिहास में न्याय की अनेक प्रकार से व्याख्या हुई है। कभी उसे ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ का पर्याय माना जाता रहा, तो कभी ईश्वर की इच्छा और पूर्व जन्मों के कार्यों का फल ।

● आधुनिक न्याय शास्त्र में न्याय का अर्थ सामाजिक जीवन की वह व्यवस्था है, जिसमें व्यक्ति के आचरण का समाज के व्यापक कल्याण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया है। स्वभाव से प्रत्येक मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए आचरण करता है, पर उसका आचरण न्यायपूर्ण तभी समझा जा सकता है, जबकि उसका आचरण समाज को भी कल्याण के मार्ग पर ले जाने वाला हो ।

● पाश्चात्य और पूर्वात्य, दोनों ही राजनीतिक दर्शनों में न्याय की धारणा को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वस्तुस्थिति यह है कि न्याय की धारणा तो न केवल राजनीतिक वरन् नैतिक चिन्तन का भी एक अनिवार्य अंग है और एक महत्त्वपूर्ण आधार है।

 

 

◆ पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन :- न्याय का अध्ययन प्लेटो की विचारधारा से प्रारम्भ किया जा सकता है। प्लेटो के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ (Republic) का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विषय न्याय की प्रकृति और उसके निवास की खोज करना है 1 इबेन्सटीन तो लिखते हैं कि ‘प्लेटो के न्याय सम्बन्धी विवेचन में उसके राजनीतिक दर्शन के समस्त तत्त्व शामिल हैं।’

 

◆ भारत के प्राचीन राजनीतिक चिन्तन :- न्याय को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है और मनु, कौटिल्य, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज तथा सोमदेव आदि सभी के द्वारा राज्य की व्यवस्था में न्याय को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

 

 

न्याय (Justice) :-

★ न्याय अर्थ व परिभाषा :-

● न्याय शब्द का अंग्रेजी पर्याय जस्टिस (Justice) लैटिन शब्द ‘ ज्यूंगैर ‘ ( Jungere बाँधना , एक साथ गाँठ देना ) और ‘ jus ( एक बन्धन अथवा गाँठ ) से व्युत्पन्न हुआ है।

● न्याय का संबंध हमारे जीवन व सार्वजनिक जीवन से जुड़े नियमों से होता है जिसके द्वारा सामाजिक लाभ कर्त्तव्यों का बंटवारा किया जाता है।

● प्राचीन भारतीय समाज में न्याय धर्म के साथ जुडा था जिसकी स्थापना राजा का परम कर्तव्य था।

 

● अरस्तु के अनुसार :- ” न्याय वह सम्पूर्ण सद्गुण है जो हम एक-दूसरे के साथ व्यवहार में प्रदर्शित करते हैं। ‘

● प्लेटो के अनुसार :– “न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक मांग है।” प्लेटों ने अपनी पुस्तक द रिपब्लिक में न्याय की चर्चा की है।

● सुकरात के अनुसार :- ” यदि सभी अन्यायी हो जायेंगे तो कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा। साधारण शब्दों में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना न्याय है। ”

● जर्मनी दार्शनिक इमैनुएल के अनुसार :- ” हर व्यक्ति का प्राप्य उसकी प्रतिभा या विकास के लिये अवसरों की प्राप्ति है। “

● चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशस के अनुसार :- गलत करने वालों को दण्डित व भले लोगों को पुरस्कृत करके न्याय की स्थापना की जानी चाहिये।

 

 

★ सामाजिक न्याय की स्थापना के तीन सिद्धांत:-

● समान लोगों के प्रति समान बर्ताव :-सभी के लिये समान अधिकार तथा भेदभाव की मनाही है। नागरिकों को उनके वर्ग जाति नस्ल या लिंग के आधार पर नहीं बल्कि उनके काम व कार्यकलापों के आधार पर जांचा जाना चाहिये अगर भिन्न जातियों के दो व्यक्ति एक ही काम कर रहे हो तो उन्हें समान पारिश्रमिक मिलना चाहिए।

● समानुपातिक न्याय :- कुछ परिस्थितियां ऐसी भी हो सकती है जहां समान बताय अन्याय होगा जैसा परीक्षा में बैठने वाले सभी छात्रों को एक जैसे अंक दिये जायें। यह न्याय नहीं हो सकता अतः मेहनत कौशल व संभावित खतरे आदि को ध्यान में रखकर अलग-अलग पारिश्रमिक दिया जाना न्याय संगत होगा।

● विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल :- जब कर्त्तव्यों व पारिश्रमिक का निर्धारण किया जाये तो लोगों की विशेष जरूरतों का ख्याल रखा जाना चाहिए। जो लोग कुछ महत्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं है उनके साथ भिन्न ढंग से बर्ताव करके उनका ख्याल किया जाना चाहिए।

 

 

★ न्याय के प्रकार :-

1. सामाजिक न्याय :- सामाजिक न्याय का अर्थ है समाज में मनुष्य एवं मनुष्य के बीच भेदभाव न हो कानून सबके लिए बराबर हो और कानून के समक्ष सभी बराबर हो ताकि सामाजिक न्याय हो | सामाजिक न्याय का अर्थ समाज में उत्पन्न विकास के सभी अवसरों जैसे वस्तु एवं सेवाओं का न्यायोचित तरीके से वितरण भी है

 

2. राजनीतिक न्याय :- राजनितिक न्याय का अर्थ है राजनीति में होने वाले भेदभाव से मिलने वाले न्याय से है लोकतंत्र में सभी को राजनीति में भाग लेने का अवसर और अपना सरकार चुनने के लिए वोट देने का अधिकार है | कई बार राजनीति में संविधान द्वारा मिले अधिकारों का भी हनन होता है और कई समाजों को बहुत दिनों तक राजनीति से वंचित रखा गया था | यहाँ तक कि उन्हें वोट भी नहीं देने दिया जाता था | इस समस्या के समाधान के लिए और राजनीतिक न्याय की स्थापना के लिए समाज के कुछ तबकों जैसे SC तथा ST वर्ग को लगभग सभी चुनाओं में उनके लिए सीटें आरक्षित कर दी गई है यही राजनीति न्याय का उदाहरण है ।

 

3. आर्थिक न्याय :- आर्थिक न्याय का अर्थ है देश के भौतिक साधनों का उचित बँटवारा और उनका उपयोग लोगों के हित के लिए हो आर्थिक न्याय की अवधारण तभी चरितार्थ होगी जब सभी को आर्थिक आजादी प्राप्त हो और वे स्वतंत्र रूप के अपना विकास संभव कर सके उन्हें विकास के लिए धन प्राप्त करने तथा उनका उचित प्रयोग के समान अवसर मिलने चाहिए | समाज के वे लोग जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं या असहाय है उन्हें अपने विकास के लिए आर्थिक मदद मिलनी चाहिए

 

4. क़ानूनी न्याय अथवा वैधानिक न्याय :- क़ानूनी न्याय अथवा वैधानिक न्याय का अर्थ है कानून के समक्ष समानता तथा न्यायपूर्ण कानून व्यवस्था है क़ानूनी न्याय राज्य के द्वारा स्थापित किया जाता है और राज्य के कानून द्वारा निर्धारित होता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि राज्य द्वारा निर्धारित कानून उचित एवं भेदभाव रहित हो |

 

5. नैतिक न्याय :- नैतिक न्याय इस धारणा पर आधारित है कि विश्व में कुछ सर्वव्यापक, अपरिवर्तनीय तथा अन्तिम प्राकृतिक नियम हैं जो कि व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को ठीक प्रकार से संचालित करते हैं। जब हमारा आचरण इन नियमों के अनुसार होता है, तब वह नैतिक न्याय की व्यवस्था होती है। जब हमारा आचरण इसके विपरीत होता है, तब वह नैतिक न्याय के विरुद्ध होता है। नैतिक न्याय के अन्तर्गत जिन बातों को शामिल किया जा सकता है उनमें से कुछ हैं- सत्य बोलना, प्राणी मात्र के प्रति दया का बर्ताव करना, प्रतिज्ञा पूरी करना या वचन का पालन करना, उदारता और दान का परिचय देना, आदि ।

 

 

★ रॉल्स का न्याय सिद्धांत:-

रॉल्स ( Rawls) अपनी पुस्तक कृति ‘The Theory of Justice ‘ 1972 में न्याय सम्बन्धी समझौता सिद्धात की संज्ञा देता हैं।

● अज्ञानता के आवरण :-  रॉल्स ने न्याय सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। यदि व्यक्ति को यह अनुमान न हो कि किसी समाज में उसकी क्या स्थिति होगी और उसे समाज को संगठित करने कार्य तथा नीति निर्धारण करने को दिया जाये तो वह अवश्य ही ऐसी सर्वश्रेष्ठ नीति बनायेगा जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग को सुविधाएं दी जा सकेगी।

● सामाजिक न्याय :-  अमीर गरीब के दरम्यान गहरी खाई को कम करना समाज के सभी लोगों के लिये जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितिया आवास, शुद्ध पेयजल, न्यूनतम मजदूरी शिक्षा व भोजन मुहैया कराना आवश्यक है।

●संसाधनों के न्यायोचित वितरण :- आधुनिक युग के प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक ‘जॉन रॉल्स’ ने सामाजिक न्याय की स्थापना के सम्बन्ध में ‘संसाधनों के न्यायोचित वितरण के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया।

● जॉन रॉल्स का तर्क है कि समाज के न्यूनतम (सबसे कम) सुविधा प्राप्त सदस्यों को अधिकतम सहायता दी जानी चाहिए। यह बिल्कुल औचित्यपूर्ण होगा।

● जॉन राल्स का मत है कि विवेकशील चिंतन हमें समाज में लाभ और साधनों के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार करने की ओर प्रेरित करता है।

 

 

★ न्यायपूर्ण बंटवारा:-

● सामाजिक न्याय का अर्थ :- वस्तुओं और सेवाओं के न्यायपूर्ण वितरण से भी है।

● यह वितरण समाज के विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच होता है ताकि नागरिकों को जीने का समान धरातल मिल सकें,

● जैसा भारत में छुआछूत प्रथा का उन्मूलन आरक्षण की व्यवस्था तथा कुछ राज्य सरकारों द्वारा उठाये गये भूमि सुधार जैसे कदम है।

● लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी समझी जाती है।

● न्यायपूर्ण समाज को अपने सदस्यों को न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ जरूर उपलब्ध करानी चाहिए ताकि वे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में सक्षम हो सकें।

 

 

 

★ समाजिक न्याय के लिए आरक्षण :-

● व्यक्ति को समाजिक न्याय तभी मिलता है जब उसे समाज में उत्पन्न सभी अवसरों का वितरण उचित एवं में न्यायपूर्ण हो | समाज का वह तबका जिसके साथ हमेशा से अन्याय होता आया है, समाज की यह जिम्मेवारी है कि उसे सामाजिक न्याय के दायरे में लाये

● संविधान द्वारा दिया गया आरक्षण का प्रावधान सामाजिक न्याय का एक उदाहरण है जिसके निम्नलिखित कारण है |

(i) आरक्षण से कमजोर वर्गों के लोगों का सामाजिक स्तर बढ़ता है।

(ii) आरक्षण के कारण कमजोर वर्गों को रोजगार के अवसर मिलते हैं |

(iii) आरक्षण से कमजोर वर्गों के लोगों के जीवन स्तरमें सुधार आता है |

 

 

● न्यायपूर्ण बँटवारा :-

सामाजिक न्याय का वास्ता वस्तुओं एवं सेवाओं के न्यायोचित बँटवारे से भी है |

चाहे यह राष्ट्रों के मध्य वितरण का मामला हो अथवा किसी समाज के भीतर विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के मध्य का हो अगर समाज में गंभीर समाजिक अथवा आर्थिक असमानताएँ हैं, तो यह आवश्यक होगा कि समाज के कुछ मुख्य संसाधनों का पुनर्वितरण हो जिससे वंचित नागरिकों को जीने के लिए समतल धरातल मिल सके |

● न्यायपूर्ण बँटवारे अर्थ है कि समाज में वस्तुओं एवं सेवाओं का इस प्रकार बँटवारा हो ताकि समाज में सामाजिक न्याय एवं आर्थिक न्याय को बढ़ावा मिले और वंचितों को उनका अपना हक़ मिल सके |

 

 

● अनुपातिक न्याय :-

● अनुपातिक न्याय अर्थात समान व्यक्तियों के साथ समान और असमान व्यक्तियों के साथ असमान व्यवहार करना है अरस्तु के अनुसार किसी व्यक्ति को कितने अधिकार और पुरस्कार दिए जाने चाहिए यह इस बात के अनुरूप हो कि उस व्यक्ति की क्या उपयोगिता है

● समाज के प्रति उसका कितना योगदान है उसका कहना था कि “बासुरी केवल उन्हीं व्यक्तियों में बाँटनी चाहिए जो इसे बजाना जानते हों शासन भी उन्हीं को करना चाहिए जो शासन करने के योग्य हो ।

● प्लेटों ने कहा कि “लोगों को  सुख प्राप्त करने की तर्कहीन इच्छा त्याग देनी चाहिए । न्याय इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि समाज के विभिन्न वर्ग केवल उन्हीं कार्यों को करें जिन्हें वे सर्वाधिक उपयुक्त रूप में कर सकते हैं और दुसरे के मामले में हस्तक्षेप न करें

 

 

★ मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप :-

● लोकतांत्रिक राज्यों में ‘मुक्त बाजार व्यवस्था’ को भी न्यायपूर्ण बताया जाता है।

● मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थकों का मानना है कि मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है।

● मुक्त बाजार व्यवस्था का मुख्य दोष यह है कि मुक्त बाजार आमतौर पर पहले से ही सम्पन्न लोगों के हक में कार्य करने को लालायित होते हैं। यह हमेशा अधिकाधिक लाभ कमाना चाहता है।

● न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों के अध्ययन से हमें इसमें शामिल मुद्दों पर बहस करने तथा न्याय के अनुसरण के सर्वोत्तम रास्ते के बारे में एक सहमति पर पहुँचने में मदद मिलती है।

 

 

 ★भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना के लिये उठाये गये कदम :-

● निशुल्क व अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा

● पंचवर्षीय योजनाएं

● अन्तयोदय योजनाएं

●वंचित वर्गो को आर्थिक सामाजिक सुरक्षा

● मौलिक अधिकारों में प्रावधान

● राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में प्रयास

 

 

 ★ संविधान एवं सामाजिक न्याय :-

● भारतीय संविधान के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक न्याय उसकी आत्मा है। संविधान की उद्देशिका में सामाजिक न्याय को मूल उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

● जहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि संविधान का उद्देश्य अपने सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता का विकास करना है ।

 

अध्याय 5 : अधिकार 

 

 

 

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