संविधान का राजनीतिक दर्शन भारतीय संविधान की विशेषताएँ भारतीय संविधान की सीमाएँ लोकतंत्र में संविधान का महत्व
★ संविधान के राजनीतिक दर्शन :-
● संविधान के दर्शन से आशय संविधान में उल्लेखनीय देश के मूल्य व आदर्शो से है जैसे भारतीय संविधान स्वतंत्राता, समानता, लोकतंत्र, समाजिक न्याय आदि के लिए प्रतिबद्ध है। इस सबके साथ उसके दर्शन को शांतिपूर्ण तथा लोकतांत्रिक तरीके से अमल किया जाये।
● भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता, अल्प संख्यकों के अधिकारों का सम्मान, धर्मिक समूहों के अधिकार सार्वभौम मताधिकार, संघवाद आदि का भी समावेश हुआ है संविधान के दर्शन का सर्वोत्तम सार-संक्षेप संविधान की प्रस्तावना में वर्णित है।
★संविधान की विशेषताएं :-
1. विभिन्न स्त्रोत :- भारतीय संविधान को उधार का संविधान कहा जाता है क्योंकि संविधान निर्माताओं ने संविधान में विश्व के विघमान संविधानों के महत्वपूर्ण लक्षणों का समावेश किया है।
2. लिखित तथा विशाल संविधान :- भारतीय संविधान एक विशेष संविधान – सभा द्वारा निर्मित एवं लिखित है। भारतीय संविधान विश्व का सर्वाधिक व्यापक दस्तावेज है।
3. कठोरता और लचीलेपन का समन्वय :- कुछ उपबंधों को संसद में विशेष बहुमत से संशोधित किया जा सकता है। अब तक कुल 104 संविधान संशोधन हो चुके हैं।
4. संसदीय व्यवस्था :– संसदीय व्यवस्था विधायिका और कार्यपालिका के मध्य समन्वय व सहयोग के सिद्धांत पर आधारित है।
5. मूल अधिकार तथा मूल कर्त्तव्य :- संविधान के भाग 3 में नागरिकों को 6 मूल अधिकार प्रदान किये गये है। 42 वें संविधान संशोधन , 1976 सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर , संविधान का भाग 4 (क) में नागरिकों को 11 मूल कर्त्तव्य प्रदान किया गया।
6. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत :- नीति निर्देशक सिद्धांतो का उद्देश्य सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र अर्थात लोककल्याणकरी राज्य की स्थापना करना है।
7. पंथनिरपेक्ष राज्य :- भारत का संविधान पंथनिरपेक्ष है। इसलिए यह किसी धर्म विशेष को भारत के धर्म के तौर पर मान्यता नही देता।
8. स्वतंत्र न्यायपालिका :- भारतीय संविधान स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना करता है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा संविधान के संरक्षक है।
9. सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार :- भारतीय संविधान में ‘ सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार ‘ के सिद्धांत को अपनाया गया है जिसमें प्रत्येक वयस्क भारतीय को बिना किसी भेदभाव के मत देने का समान अधिकार प्राप्त है।
10. त्रिस्तरीय सरकार :- 1950 संघवाद के अनुसार केंद्र और राज्य स्तर की सरकार तथा 1992 में 73 वें एवं 74 वें संविधान संशोधन ने तीन स्तरीय ( स्थानीय ) सरकार का प्रावधान किया गया।
★ राजनीतिक दर्शन से क्या आशय हैं :-
● पहली बात संविधान कुछ अवधारणाओं के आधार पर बना है। इन अवधारणाओं को व्याख्या हमारे लिए जरूरी हैं । हम संविधान में व्यवहार किए गए पदों, जैसे ‘अधिकार’, ‘नागरिकता’, ‘अल्पसंख्यक’ अथवा ‘लोकतंत्र’ के संभावित अर्थ के बारे में सवाल करें।
● इसके अतिरिक्त, हमारे सामने एक ऐसे समाज और शासन व्यवस्था की तस्वीर साफ-साफ होनी चाहिए जो संविधान की बुनियादी अवधारणाओं को हमारी व्याख्या से मेल खाती है। संविधान का निर्माण जिन आदशों की बुनियाद पर हुआ है. उन पर हमारी गहरी पकड़ होनी चाहिए।
● इस सिलसिले में हमारी अंतिम बात यह है कि भारतीय संविधानको संविधान सभा की बहसों के साथ जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए ताकि सैद्धांतिक रूप से हम बता सके कि ये आदर्श कहाँ तक और क्यों ठीक है तथा आगे उनमें कौन-से सुधार किए जा सकते हैं।
● किसी मूल्य को अगर हम संविधान की बुनियाद बनाते हैं, तो हमारे लिए यह बताना जरूरी हो जाता है कि यह मूल्य सही और सुसंगत क्यों है। इसके बगैर संविधान के निर्माण में किसी मूल्य को आधार बनाना एकदम अधूरा कहा जाएगा।
● संविधान के निर्माताओं ने जब भारतीय समाज और राज व्यवस्था को अन्य मूल्यों के बदले किसी खास मूल्य-समूह से दिशा-निर्देशित करने का फैसला किया, तो ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि उनके पास इस मूल्य समूह को जायज ठहराने के लिए कुछ तर्क जरूरी है।
★हमारे संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
● इस दर्शन को एक शब्द में बताना कठिन है हमारा संविधान किसी एक शीर्षक में अँटने से इनकार करता है क्योंकि यह उदारवादी लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, संघवादी, सामुदायिक जीवन मूल्यों का हामी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से अधिकार बचित वर्गों की जरूरतों के प्रति संवेदनात्मक तथा एक सर्व सामान्य राष्ट्रीय पहचान बनाने को प्रतिबद्ध संविधान है।
● संक्षेप में यह संविधान स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र सामाजिक न्याय तथा एक न एक किस्म की राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्ध है। इन सबके साथ एक बुनियादी चीज और है संविधान का जोर इस बात पर है कि उसके दर्शन पर शांतिपूर्ण तथा लोकतांत्रिक तरीके से अमल किया जाए।
1. व्यक्ति की स्वतंत्रता :-
● संविधान के बारे में गौर करने वाली पहली बात है कि यह व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। यह प्रतिबद्धता किसी चमत्कार के रूप में मेज के इर्द-गिर्द चुपचाप बैठकर चिंतन-मनन करने से नहीं आई। यह प्रतिबद्धता लगभग एक सदी तक निरंतर चली बौद्धिक और राजनीतिक गतिविधियों का परिणाम है।
● 19वीं सदी के शुरुआती समय में ही राममोहन राय ने प्रेस की आज़ादी की काट-छाँट का विरोध किया था। अंग्रेजी सरकार प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध लगा रही थी। राममोहन राय का तर्क था कि जो राज्य व्यक्ति की ज़रूरतों का ख्याल रखता है, उसे चाहिए कि वह व्यक्ति को अपनी जरूरतों की अभिव्यक्ति का साधन प्रदान करे।
● आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान का अभिन्न अंग है। इसी तरह मनमानी गिरफ़्तारी के विरुद्ध हमें स्वतंत्रता प्रदान की गई है। आखिर कुख्यात रौलेट एक्ट ने हमारी इसी स्वतंत्रता के अपहरण का प्रयास किया था और राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम ने इसके विरुद्ध जमकर लोहा लिया। इसके अतिरिक्त अन्य वैयक्तिक स्वतंत्रताएँ मसलन अंतरात्मा का अधिकार उदारवादी विचारधारा का अभिन्न हिस्सा है।
● मौलिक अधिकारों से संबंधित अध्याय में हम देख चुके हैं कि भारतीय संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता को कितना महत्त्व देता है। यहाँ इस बात को भी हम याद करें कि संविधान को अंगीकार करने के चालीस वर्ष पहले भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रत्येक प्रस्ताव, योजना, विधेयक और रिपोर्ट में व्यक्ति की स्वतंत्रता की चर्चा रहती थी।
2. सामाजिक न्याय :-
● पहली बात तो यह कि हमारा संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। संविधान निर्माताओं का विश्वास था कि मात्र समता का अधिकार दे देना इन वर्गों के साथ सदियों से हो रहे अन्याय से मुक्ति के लिए अथवा इनके मताधिकार को वास्तविक अर्थ देने के लिए काफी नहीं है।
● इन वगों के हितों को बढ़ावा देने के लिए विशेष संवैधानिक उपायों की जरूरत थी। इस कारण संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के हितों की रक्षा के लिए बहुत से विशेष उपाय किए। इसका एक उदाहरण है
● अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए विधायिका में मोटों का आरक्षण सविधान के विशेष प्रावधानों के कारण हो सरकारी नौकरियों में इन वर्गों को आरक्षण देना संभव हो सका।
3. विविधता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान :-
● भारतीय संविधान समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देता है। हमारे देश में ऐसा करना आसान नहीं था क्योंकि समुदायों के बीच अकसर बराबरी का रिश्ता नहीं होता। समुदायों के बीच एक-दूसरे के साथ अकसर ऊँच-नीच का रिश्ता होता है जैसा कि हम जाति के मामले में देखते हैं।
● समुदायों को मान्यता न देकर इस समस्या का समाधान आसानी से किया जा सकता था। अधिकांश पश्चिमी राष्ट्रों के उदारवारी संविधान में ऐसा ही किया गया है।
● हर जगह के व्यक्ति सांस्कृतिक समुदाय से जुड़े होते हैं और ऐसे हर समुदाय को अपनी परंपरा, मूल्य, रीतिथि भाषा होती है। समुदायका सदस्य इसमें भागीदार होता है।
4. धर्मनिरपेक्ष :-
● धमनिरपेक्ष राज्य धर्म को निजी मामला के रूप में स्वीकार करते हैं। कहने का अर्थ यह कि धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्म को आधिकारिक अथवा सार्वजनिक मान्यता नहीं प्रदान करते।
● क्या इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं है? ऐसी बात नहीं है। शुरुआत में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का कि संविधान में नहीं हुआ था लेकिन भारतीय संविधान हमेशा धर्मनिरपेक्ष रहा।
● धार्मिक समूहों के अधिकार
यदि एक समुदाय दूसरे के प्रभुत्व में हो तो उसके सदस्य भी कम स्वतंत्र होंगे। दूसरी तरफ अगर दो समुदायों के बीच बराबरी का संबंध हो. एक का दूसरे पर प्रभुत्व न हो तो इन समुदायों के सदस्य आत्म-सम्मान और आजादी के भाव से भरे होंगे।
● दूसरी बात, धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ भारत में पारस्परिक निषेध नहीं हो सकता ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि धर्म से अनुमोदित रिवाज मसलन छुआछूत व्यक्ति को उसकी बुनियादी गरिमा और आत्म सम्मान से है।
5. सार्वभौम मताधिकार
● दो अन्य केंद्रीय विशेषताओं को उपलब्धि के रूप में हो सकता है। सार्वभौम मताधिकार के प्रति वचनबद्धता अपने आप में कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं खासतौर पर उस स्थिति में जब माना जाता हो कि भारत में परंपरागत आपसी ऊँच-नीच का व्यवहार बहुत मजबूत है और उसे समाप्त कर पाना लगभग असंभव है। मताधिकार को अपनाना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण कहा जाएगा
6. संघवाद :-
● पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने असमतोल संघवाद जैसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवधारणा को अपनाया संवाद से संबंधित अध्याय में हमने देखा कि संविधान में एक मजबूत केंद्रीय सरकार की बात मानी गई है।
● संविधान का झुकाव केंद्र सरकार की मजबूती की तरफ तो है लेकिन इसके बावजूद भारतीय संघ की विभिन्न इकाइयों को कानूनी हैसियत और विशेषाधिकार में महत्त्वपूर्ण अंतर है।
7. राष्ट्रीय पहचान :-
● संविधान में समस्त भारतीय जनता की एक राष्ट्रीय पहचान पर निरंतर जोर गया है। हमारी एक राष्ट्रीय पहचान का भाषा या धर्म के आधार पर बनी अलग-अलग पहचानों से कोई विरोध नहीं है।
● भारतीय संविधान में इन दो पहचानों बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गई है। फिर भी किन्हीं विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय पहचान को वरीयता प्रदान की गई है।