अध्याय 15 : पृथ्वी पर जीवन

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 पर्यावरण के तीन मुख्य परिमंडल

स्थलमंडल,
जलमंडल
वायुमंडल

 

 

 

जैवमंडल :

● पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवधारी, जो मिलकर जैवमंडल (Biosphere) बनाते हैं ये पर्यावरण – के दूसरे मंडलों के साथ पारस्परिक क्रिया करते हैं।

● जैवमंडल में पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवित घटक शामिल हैं। जैवमंडल सभी पौधों, जंतुओं, प्राणियों (जिसमें पृथ्वी पर रहने वाले सूक्ष्म जीव भी हैं) और उनके चारों तरफ के पर्यावरण के पारस्परिक अंतर्संबंध से बना है।

● जैवमंडल और इसके घटक पर्यावरण के बहुत महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। ये तत्त्व अन्य प्राकृतिक घटकों जैसे -भूमि, जल व मिट्टी के साथ पारस्परिक क्रिया करते हैं। ये वायुमंडल के तत्त्वों जैसे तापमान, वर्षा, आर्द्रता व सूर्य के प्रकाश से भी प्रभावित होते हैं।

 

● जैविक घटकों का भूमि, वायु व जल के साथ पारस्परिक आदान-प्रदान जीवों के जीवित रहने, बढ़ने व विकसित होने में सहायक होता है।

 

 

 

पारिस्थितिकी :

 

पर्यावरण- जैविक व अजैविक तत्त्वों के मेल से बना है। विविध प्राणियों / जीवधारियों का एक विशेष अनुपात में रहना आवश्यक है, जिससे जैविक व अजैव तत्त्वों में स्वस्थ अंतर्क्रिया जारी रहे।

 

 

पारिस्थितिकी क्या है ?

 

● इकोलोजी (ecology) शब्द ग्रीक भाषा के दो ‘शब्दों (Oikos) ‘ओइकोस’ और (logy) ‘लोजी’ से मिलकर बना है। ओइकोस का शाब्दिक अर्थ ‘घर तथा ‘लोजी’ का अर्थ विज्ञान या अध्ययन से है। शाब्दिक अर्थानुसार इकोलोजी – पृथ्वी पर पौधों, मनुष्यों, जतुओं व सूक्ष्म जीवाणुओं के ‘घर के रूप में अध्ययन है । जर्मन प्राणीशास्त्री अर्नस्ट हैक्कल (Ernst Haeckel), जिन्होंने सर्वप्रथम सन् 1869 में ओइकोलोजी (Oekologie) शब्द का प्रयोग किया

● किसी विशेष क्षेत्र में किसी विशेष समूह के जीवधारियों का भूमि, जल अथवा वायु (अजैविक तत्त्वों) से ऐसा अतसंबंध जिसमें ऊर्जा प्रवाह व पोषण श्रृंखलाएं स्पष्ट रूप से समायोजित हों, उसे पारितंत्र (Ecologi- cal system) कहा जाता है।

 

● पारिस्थितिकी प्रमुख रूप से जीवधारियों के जन्म, विकास, वितरण, प्रवृत्ति व उनके प्रतिकूल अवस्थाओं में भी जीवित रहने से संबंधित है।

● पारिस्थिति के संदर्भ में आवास (habitat) पर्यावरण के भौतिक व रासायनिक कारकों का योग है। विभिन्न प्रकार के पर्यावरण व विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न प्रकार के पारितंत्र पाए जाते हैं,

जहाँ अलग-अलग प्रकार के पौधे व जीव-जंतु विकास क्रम द्वारा उस पर्यावरण के अभ्यस्त हो जाते हैं। इस प्रकरण को पारिस्थितिक अनुकूलन (Ecological adaptation) कहते हैं।

 

 

 

 पारितंत्र के प्रकार

 

पारितंत्र मुख्यतः दो प्रकार के हैं:

1) स्थलीय (Terrestrial) पारितंत्र :

स्थलीय पारितंत्र को पुनः ‘बायोम’ (Biomes ) में विभक्त किया जा सकता है।

बायोम :

विशेष परिस्थितियों में पादप व जंतुओं के अंतसंबंधों के कुल योग को ‘बायोम’ कहते हैं। इसमें वर्षा, तापमान, आर्द्रता व मिट्टी संबंधी अवयव भी शामिल हैं। बायोम, पौधों व प्राणियों का एक समुदाय है, जो एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में पाया जाता है।

 

 

2) जलीय (Aquatic) पारितंत्र

जलीय पारितंत्र को समुद्री पारितंत्र व ताजे जल के पारितंत्र में बाँटा जाता है। समुद्री पारितंत्र में महासागरीय, ज्वारनदमुख, प्रवाल भित्ति (Coral reef), पारितंत्र सम्मिलित हैं। ताजे जल के पारितंत्र में झीलें, तालाब, सरिताएँ, कच्छ व दलदल (Marshes and bogs) शामिल हैं।

 

 

 

पारितंत्र की कार्य प्रणाली व संरचना :

पारितंत्र की संरचना में वहाँ उपलब्ध पौधों व जंतुओं की प्रजातियों का वर्णन सम्मिलित है।

संरचना की दृष्टि से, सभी पारितंत्र में जैविक व अजैविक कारक होते हैं।

 

अजैविक कारक :

अजैविक या भौतिक (Abiotic factors) कारकों में तापमान, वर्षा, सूर्य का प्रकाश, आर्द्रता, मृदा की स्थिति व अजैविक या अकार्बनिक तत्त्व (कार्बन डाई आक्साइड, जल, नाइट्रोजन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, पोटाशियम आदि ) सम्मिलित हैं

 

 

जैविक कारक :

जैविक कारकों (Biotic factors) में उत्पादक, उपभोक्ता (प्राथमिक, द्वितीयक व तृतीयक ) तथा अपघटक शामिल हैं। उत्पादकों में सभी हरे पौधे सम्मिलित हैं

 

 

 पारितंत्र की कार्य प्रणाली :

 

1) प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं में शाकाहारी जंतु जैसे- हिरण, बकरी, चूहे और सभी पौधों पर निर्भर जीव शामिल हैं।

2) द्वितीयक श्रेणी के उपभोक्ताओं में सभी माँसाहारी जैसे- साँप, बाघ, शेर आदि शामिल हैं।

3) जो दूसरे माँसाहारी जीवों पर निर्भर हैं, उन्हें चरम स्तर के माँसाहारी (Top carnivores) के रूप में जाना जाता है। जैसे- बाजू और नेवला आदि

4) अपघटक वे हैं, जो मृत जीवों पर निर्भर हैं (जैसे- कौवा और गिद्ध), तथा कुछ अन्य अपघटक, जैसे-बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्म जीवाणु मृतकों को अपघटित कर उन्हें सरल पदार्थों में परिवर्तित करते हैं।

 

 

● प्राथमिक उपभोक्ता, उत्पादक पर निर्भर हैं, जबकि प्राथमिक उपभोक्ता, द्वितीयक उपभोक्ताओं के भोजन बनते हैं। द्वितीयक उपभोक्ता फिर तृतीयक उपभोक्ताओं के द्वारा खाए जाते हैं। अपघटक प्रत्येक स्तर पर मृतकों पर निर्भर होते हैं।

 

 

खाद्य श्रृंखला :

पौधे पर जीवित रहने वाला एक कीड़ा (Beetle) एक मेंढक का भोजन है, जो मेढक साँप का भोजन है और साँप एक बाज़ द्वारा खा लिया जाता है। यह खाद्य क्रम और इस क्रम से एक स्तर से दूसरे स्तर पर ऊर्जा प्रवाह ही खाद्य शृंखला (Food chain) कहलाती है।

 

 

ऊर्जा प्रवाह :

खाद्य श्रृंखला की प्रक्रिया में एक स्तर से दूसरे स्तर पर ऊर्जा के रूपांतरण को ऊर्जा प्रवाह (Flow of energy) कहते हैं।

 

खाद्य जाल :

एक चूहा, जो अन्न पर निर्भर है. वह अनेक द्वितीयक उपभोक्ताओं का भोजन है और तृतीयक माँसाहारी अनेक द्वितीयक जीवों से अपने भोजन की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक माँसाहारी जीव एक से अधिक प्रकार के शिकार पर निर्भर है। परिणामस्वरूप खाद्य श्रृंखलाएँ आसपास में एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। प्रजातियों के इस प्रकार जुड़े होने (अर्थात् जीवों की खाद्य श्रृंखलाओं के विकल्प उपलब्ध होने पर) को खाद्य जाल (Food web) कहा जाता है।

 

 

दो प्रकार की खाद्य श्रृंखलाएँ पाई जाती हैं-

1) चराई खाद्य श्रृंखला (Grazing food chain)

2) अपरद खाद्य श्रृंखला (Detritus food chain)

 

 

 

 बायोम के प्रकार :

संसार के पाँच प्रमुख बायोम इस प्रकार हैं:

1) वन बायोम

2) मरुस्थलीय बायोम,

3) घासभूमि बायोम,

4) जलीय बायोम

5) उच्च प्रदेशीय बायोम

 

 

 

जैव भू-रासायनिक चक्र :

● सूर्य ऊर्जा का मूल स्रोत है। जिसपर सम्पूर्ण जीवन निर्भर है। यही ऊर्जा जैवमंडल में प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा जीवन प्रक्रिया आरंभ करती है

 

● जो हरे पौधों के लिए भोजन व ऊर्जा का मुख्य आधार है। प्रकाश संश्लेषण के दौरान कार्बन डाईऑक्साईड, ऑक्सीजन व कार्बनिक यौगिक में परिवर्तित हो जाती है। धरती पर पहुँचने वाले सूर्याताप का बहुत छोटा भाग (केवल 0.1 प्रतिशत ) प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया में काम आता है।

 

● इसका आधे से अधिक भाग पौधे की श्वसन- विसर्जन क्रिया में और शेष भाग अस्थाई रूप से पौधे के अन्य भागों में संचित हो जाता है।

 

● ये चक्र मुख्यतः सौर ताप से संचालित होते हैं। जैवमंडल में जीवधारी व पर्यावरण के बीच ये रासायनिक तत्त्वों के चक्रीय प्रवाह जैव भू- रासायनिक चक्र कहे जाते हैं। बायो’ (Bio) का अर्थ है जीव तथा ‘ज्यो’ (Geo) का तात्पर्य पृथ्वी पर उपस्थित चट्टानें, मिट्टी, वायु व जल से है।

 

जैव भू-रासायनिक चक्र दो प्रकार के हैं

1) एक गैसीय (Gaseous cycle)

2) दूसरा तलछटी चक्र (Sedimentary cycle),

 

 

 

ऑक्सीजन चक्र :-

●चक्र बताता है कि प्रकृति के माध्यम से ऑक्सीजन विभिन्न रूपों में कैसे फैलती है। ऑक्सीजन हवा में स्वतंत्र रूप से होती है, जो पृथ्वी के चक्र में रासायनिक यौगिकों के रूप में फंस जाती है, या पानी में भंग हो जाती है ।

● हमारे वायुमंडल में ऑक्सीजन लगभग 21% है , और यह नाइट्रोजन के बाद दूसरी सबसे प्रचुर मात्रा में गैस मानी जाती है। इसका ज्यादातर जीवित जीवों, विशेष रूप से श्वसन में मनुष्य और जानवरों द्वारा उपयोग किया जाता है। ऑक्सीजन मानव शरीर का सबसे आम और महत्वपूर्ण तत्व भी है ।

 

 

 

कार्बन चक्र :-

● सभी जीवधारियों में कार्बन पाया जाता है यह सभी कार्बनिक यौगिक का मूल तत्व है, जैवमंडल में असंख्य कार्बन यौगिक के रूप में मौजूद हैं ।

● कार्बन चक्र वह प्रक्रिया है जिसको हवा, जमीन, पौधों, जानवरों, और जीवाश्म ईंधन के माध्यम से यह चक्र चलता है ।

● लोग और जानवर हवा से ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2 ) निकालते हैं ,जबकि पौधे प्रकाश संश्लेषण के लिए सीओ 2 अवशोषित करते हैं और वायुमंडल में वापस ऑक्सीजन उत्सर्जित करते हैं ।

 

 

 

नाइट्रोजन चक्र :-

● वायुमंडल में 79% नाइट्रोजन है । कुछ विशिष्ट जीव, मृदा, जीवाणु व नीले हरे शैवाल ही इसे प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण कर सकते है ।

● स्वंतत्र नाइट्रोजन का मुख्य स्रोत मिट्टी के सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया व संबंधित पौधों की जड़े तथा रंध्र वाली मृदा है जहाँ से वह वायुमंडल में पहुँचती है । वायुमंडल में चमकने वाली बिजली एवं अंतरिक्ष विकिरण द्वारा नाइट्रोजन का यौगिकीकरण होता है तथा हरे पौधों में स्वांगीकरण होता है ।

● मृत पौधों तथा जानवरों के अपषिष्ट मिट्टी में उपस्थित बैक्टीरिया द्वारा नाइट्राइट में बदल जाते हैं कुछ जीवाणु इन नाइट्रेट को दोबारा स्वंतत्र नाइट्रोजन में परिवर्तित करने में योग्य होते हैं इस प्रक्रिया को डी- नाइट्रीकरण कहते हैं ।

 

 

 

परिस्थितिक संतुलन :-

• किसी पारितंत्र या आवास में जीवों के समुदाय में परस्पर गतिक साम्यता की अवस्था ही पारिस्थितिक संतुलन है। यह पारितंत्र में हर प्रजाति की संख्या के एक स्थायी संतुलन के रूप में तभी रह सकता है, जब किसी पारिस्थितिकी तंत्र में निवास करने वाले विभिन्न जीवों की सापेक्षिक संख्या में संतुलन हो । यह इस तथ्य पर निर्भर करता हैं कि कुछ जीव अपने भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर करते हैं उदाहरणतया घास के विशाल मैदानों के हिरण, जेबरा, भैंस आदि शाकाहारी जीव अधिक संख्या में होते हैं। दूसरी और बाघ व शेर जैसे मांसाहारी जीव अपने भोजन के लिए शाकाहारी जीवों पर निर्भर करते हैं

 

 

 पारिस्थितिक असन्तुलन के चार कारक

 

• जनसंख्या वृद्धि :- लगातार जनसंख्या वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता जाता है और पारिस्थितिक असन्तुलन की स्थित उत्पन्न हो जाती है।

वन सम्पदा का विनाश :- वन सम्पदा के विनाश ( मानव व प्रकृति दोनों के द्वारा ) से भी पारिस्थितिक असन्तुलन की स्थिति पैदा हो जाती है अत्याधिक वर्षा से बाढ़ द्वारा मृदा अपरदन या सूखे से भी वन नष्ट हो जाते हैं ।

तकनीकी प्रगति :- लगातार प्रगति के कारण औद्योगिक क्षेत्र बढ़ता जा रहा है और इनसे निकलने वाला धुंआ व अपशिष्ट पदार्थ वातावरण को दूषित कर परिस्थितिक सन्तुलन को बिगाड़ते हैं ।

 

माँसाहारी पशुओं की कमी :- मासांहारी पशुओं की कमी से शाकाहारी पशुओं की संख्या बढ़ जाती है और उनके द्वारा वनस्पति ( घास – झाडिया ) अधिक मात्रा में खाई जाती है। जिससे पहाडियों पर वनस्पति का आवरण कम हो जाता है। और मृदा अपरदन की तीव्रता बढ़ जाती है जिससे पारिस्थितिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

 

 

 

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