प्राकृतिक वनस्पति
प्राकृतिक वनस्पति से अभिप्राय उसी पौधा समुदाय से है, जो लंबे समय तक बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के उगता है और इसकी विभिन्न प्रजातियाँ वहाँ पाई जाने वाली मिट्टी और जलवायु परिस्थितियों में यथासंभव स्वयं को ढाल लेती हैं।
भारत में विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। हिमालय पर्वतों पर शीतोष्ण कटिबंधीय वनस्पति उगती है; पश्चिमी घाट तथा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन पाए जाते हैं; डेल्टा क्षेत्रों में उष्ण कटिबंधीय वन व मैंग्रोव तथा राजस्थान के मरुस्थलीय और अर्ध-मरुस्थलीय क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की झाड़ियाँ, कैक्टस और कांटेदार वनस्पति पाई जाती है। मिट्टी और जलवायु में विभिन्नता के कारण भारत में वनस्पति में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं।
वनों के प्रकार
(i) उष्ण कटिबंधीय सदाबहार एवं अर्ध- सदाबहार वन
(ii) उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन
(iii) उष्ण कटिबंधीय काँटेदार वन
(iv) पर्वतीय वन
(v) वेलांचली व अनूप वन
1)उष्ण कटिबंधीय सदाबहार एवं अर्ध- सदाबहार वन
ये वन पश्चिमी घाट की पश्चिमी ढाल पर, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की पहाड़ियों पर और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं।
ये उन उष्ण और आर्द्र प्रदेशों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 200 सेंटीमीटर से अधिक होती है और औसत वार्षिक तापमान 22° सेल्सियस से अधिक रहता है। इन वनों में वृक्षों की लंबाई 60 मीटर या उससे भी अधिक हो सकती है।जहाँ भूमि के नजदीक झाड़ियाँ और बेलें होती हैं, इनके ऊपर छोटे कद वाले पेड़ और सबसे ऊपर लंबे पेड़ होते हैं
वृक्ष प्रजातियाँ : रोजवुड, महोगनी ऐनी और एबनी हैं।
अर्ध-सदाबहार वन
अर्ध- सदाबहार वन इन्हीं क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम वर्षा वाले भागों में पाए जाते हैं। ये वन सदाबहार और आर्द्र पर्णपाती वनों के मिश्रित रूप हैं। इनमें मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ साइडर, होलक और कैल हैं।
2) उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन
भारत मे ये वन बहुतायत में पाए जाते हैं। इन्हें मानसून वन भी कहा जाता है।ये वन उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 70 से 200 सेंटीमीटर होती है।
इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है ।
1 आर्द्र पर्णपाती वन
आर्द्र पर्णपाती वन उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा 100 से 200 सेंटीमीटर होती है। ये वन उत्तर-पूर्वी राज्यों और हिमालय के गिरीपद पश्चिमी घाट के पूर्वी ढालों और ओडिशा में उगते हैं। सागवान, साल, शीशम, हुर्रा, महुआ, आँवला, सेमल, कुसुम और चंदन आदि प्रजातियों के वृक्ष पाए जाते हैं ।
2 शुष्क पर्णपाती वन
शुष्क पर्णपाती वन, देश के उन विस्तृत भागों में मिलते हैं, जहाँ वर्षा 70 से 100 सेंटीमीटर होती है। आर्द्र क्षेत्रों की ओर ये वन आर्द्र पर्णपाती और शुष्क क्षेत्रों की और काँटेदार वनों में मिल जाते हैं।
इन वनों में पाए जाने वाले मुख्य पेड़ों में तेंदु, पलास, अमलतास, बेल, खैर और अक्सलवूड (Axlewood) इत्यादि हैं।
3) उष्ण कटिबंधीय कांटेदार वन
उष्ण कटिबंधीय काँटेदार वन उन भागों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा 50 सेंटीमीटर से कम होती है। इन वनों में कई प्रकार के घास और झाड़ियाँ शामिल हैं। दक्षिण-पश्चिमी पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अर्ध शुष्क क्षेत्र शामिल हैं।
मुख्य प्रजातियाँ बबूल, बेर, खजूर, खैर, नीम, खेजड़ी और पलास इत्यादि हैं।
4) पर्वतीय वन
पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचाई के साथ तापमान घटने के साथ-साथ प्राकृतिक वनस्पति में भी बदलाव आता है।
इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है
1)उत्तरी पर्वतीय वन
2)दक्षिणी पर्वतीय वन
हिमालय के गिरीपद पर पर्णपाती वन पाए जाते हैं। इसके बाद 1.000 से 2,000 मीटर की ऊँचाई पर आर्द्र शीतोष्ण कटिबंधीय प्रकार के वन पाए जाते हैं। उत्तर-पूर्वी भारत की उच्चतर पहाड़ी श्रृंखलाओं और पश्चिम बंगाल और उत्तरांचल के पहाड़ी इलाकों में चौड़े पत्तों वाले ओक और चेस्टनट जैसे सदाबहार वन पाए जाते हैं।इस क्षेत्र में 1,500 से 1.750 मीटर की ऊँचाई पर व्यापारिक महत्त्व वाले चीड़ के वन पाए जाते हैं।
हिमालय के पश्चिमी भाग में बहुमूल्य वृक्ष प्रजाति देवदार के वन पाए जाते हैं। देवदार की लकड़ी अधिक मजबूत होती हैं और निर्माण कार्य में प्रयुक्त होती है।
बल्यूपाइन और स्प्रूस 2.225 से 3,048 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। अधिक ऊँचाई पर एल्पाइन वन और चारागाह पाए जाते हैं। 3,000 से 4,000 मीटर की ऊँचाई परसिल्वर फर जूनियर, पाइन, बर्च और रोडोडेन्ड्रॉन आदि वृक्ष मिलते हैं।
दक्षिणी पर्वतीय वन मुख्यत: प्रायद्वीप के तीन भागों में मिलते हैं :
पश्चिमी घाट:
विंध्याचल
नीलगिरी पर्वत श्रृंखलाएँ।
5) वेलांचली व अनूप वन
भारत में विभिन्न प्रकार के आर्द्र व अनूप आवास पाए जाते हैं। इसके 70 प्रतिशत भाग पर चावल की खेती की जाती है। भारत में लगभग 39 लाख हेक्टेयर भूमि आर्द्र है। ओडिशा में चिलका और भरतपुर में केउलादेव राष्ट्रीय पार्क. अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्र भूमियों के अधिवेशन ( रामसर अधिवेशन) के अंतर्गत रक्षित जलकुक्कुट आवास हैं।
हमारे देश की आर्द्र भूमि को आठ वर्गों में रखा गया है,
(i) दक्षिण में दक्कन पठार के जलाशय और दक्षिण-पश्चिमी तटीय क्षेत्र की लैगून व अन्य आर्द्र भूमि;
(ii) राजस्थान, गुजरात और कच्छ की खारे जल वाली भूमि
iii) गुजरात राजस्थान से पूर्व ( केउलादेव राष्ट्रीय पार्क) और मध्य प्रदेश की ताजा जल वाली झीलें व जलाशय;
(iv) भारत के पूर्वी तट पर डेल्टाई आर्द्र भूमि व लैगून (चिलका झील आदि);
(v) गंगा के मैदान में ताजा जल वाले कच्छ क्षेत्र;
(vi) ब्रह्मपुत्र घाटी में बाढ़ के मैदान व उत्तर-पूर्वी भारत और हिमालय गिरीपद के कच्छ एवं अनूप क्षेत्र;
(vii) कश्मीर और लद्दाख की पर्वतीय झीलें और नदियाँ;
(viii) अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के द्वीप चापों के मैंग्रोव वन और दूसरे आर्द्र क्षेत्र
मैंग्रोव वन
भारत में मैंग्रोव वन 6.740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं, जो विश्व के मैंग्रोव क्षेत्र का 7 प्रतिशत हैं। ये अंडमान और निकोबार द्वीप समूह व पश्चिम बंगाल के सुंदर वन डेल्टा में अत्यधिक विकसित हैं। इसके अलावा ये महानदी, गोदावरी और कृष्णा नदियों के डेल्टाई भाग में पाए जाते हैं।
भारत में वन आवरण
राजस्व विभाग से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार भारत में 23.28 प्रतिशत भाग पर वन हैं।
इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट 2011 के अनुसार वास्तविक वन आवरण केवल 21.05 प्रतिशत है। उनमें से 12.29 प्रतिशत भाग पर सघन वन और 8.75 प्रतिशत पर विवृत वन पाए जाते हैं।
अंडमान और निकोबार में 86.93 प्रतिशत क्षेत्र वन के अधीन है , 10 प्रतिशत से कम वन क्षेत्र वाले राज्य मुख्य तौर पर देश के उत्तर और उत्तर-पश्चिम भाग में स्थित हैं। ये राज्य राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, और दिल्ली हैं वन आवरण में भी भिन्नताएँ पाई जाती हैं, जो कि जम्मू और कश्मीर में 19.5 प्रतिशत से अंडमान-निकोबार में 84.01 प्रतिशत तक है।
वन संरक्षण
भारत सरकार ने पूरे देश के लिए वन संरक्षण नीति 1952 में लागू की जिसे 1988 में संशोधित किया गया। इस नई वन नीति के अनुसार सरकार सतत्पोष्णीय वन प्रबंध पर बल देगी जिससे एक ओर वन संसाधनों का संरक्षण व विकास किया जाएगा और दूसरी तरफ स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं को पूरा किया जाएगा।
इस वन नीति के निम्नलिखित उद्देश्य हैं:
i) देश में 33 प्रतिशत भाग पर वन लगाना, जो वर्तमान राष्ट्रीय स्तर से 6 प्रतिशत अधिक है;
(ii) पर्यावरण संतुलन बनाए रखना तथा पारिस्थितिक असंतुलित क्षेत्रों में वन लगाना;
(iii) देश की प्राकृतिक धरोहर, जैव विविधता तथा आनुवांशिक पूल का संरक्षण;
(iv) मृदा अपरदन और मरुस्थलीकरण रोकना तथा बाढ़ व सूखा नियंत्रण;
(v) निम्नीकृत भूमि पर सामाजिक वानिकी एवं वनरोपण द्वारा वन आवरण का विस्तार
(vi) वनों की उत्पादकता बढ़ाकर वनों पर निर्भर ग्रामीण जनजातियों को इमारती लकड़ी. ईंधन, चारा और भोजन उपलब्ध करवाना और लकड़ी के स्थान पर अन्य वस्तुओं को प्रयोग में लाना;
(vii) पेड़ लगाने को बढ़ावा देने के लिए, पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन चलाना, जिसमें महिलाएँ भी शामिल हों, ताकि वनों पर दबाव कम हो ।
सामाजिक वानिकी
सामाजिक वानिकी का अर्थ है पर्यावरणीय, सामाजिक व ग्रामीण विकास में मदद के उद्देश्य से वनों का प्रबंध और सुरक्षा तथा ऊसर भूमि पर वनरोपण। राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976-79) ने सामाजिक वानिकी को तीन वर्गों में बाँटा है- शहरी वानिकी. ग्रामीण वानिकी और फार्म वानिकी ।
शहरों वानिकी और उनके इर्द-गिर्द निजी व सार्वजनिक भूमि जैसे हरित पट्टी, पार्क, सड़कों के साथ जगह. – औद्योगिक व व्यापारिक स्थलों पर वृक्ष लगाना और उनका प्रबंध शहरी वानिकी के अंतर्गत आता है।
ग्रामीण वानिकी में कृषि वानिकी और समुदाय कृषि वानिकी को बढ़ावा दिया जाता है।
कृषि वानिकी का अर्थ है कृषियोग्य तथा बंजर भूमि पर पेड़ और फसलें एक साथ लगाना। इसका अभिप्राय है वानिकी और खेती एक साथ करना
फार्म वानिकी
फार्म वानिकी के अंतर्गत किसान अपने खेतों में व्यापारिक महत्त्व वाले या दूसरे पेड़ लगाते हैं। वन विभाग, इसके लिए छोटे और मध्यम किसानों को निःशुल्क पौधे उपलब्ध कराता है। इस योजना के तहत कई तरह की भूमि, जैसे खेतों की मेड़ें, चरागाह, घासस्थल, घर के पास पड़ी खाली जमीन और पशुओं के बाड़ों में भी पेड़ लगाए जाते हैं।
वन्य प्राणी
विश्व के ज्ञात पौधों और प्राणियों की किस्मों में से 4-5 प्रतिशत किस्में भारत में पाई जाती हैं। हमारे देश में इतने बड़े पैमाने पर जैव विविधता पाए जाने का कारण यहाँ पर पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र हैं,
वन्य प्राणियों की संख्या कम होने के मुख्य कारण इस प्रकार हैं :
(i) औद्योगिकी और तकनीकी विकास के कारण वनों के दोहन की गति तेज हुई;
(ii) खेती. मानवीय बस्ती सड़कों, खदानों, जलाशयों इत्यादि के लिए जमीन से वनों को साफ किया गया;
iii) स्थानीय लोगों ने चारे, ईंधन और इमारती लकड़ी के लिए वनों से पेड़ काटे और वनों पर दबाव बढ़ाया:
(iv) पालतू पशुओं के लिए नए चरागाहों की खोज में मानव ने वन्य जीवों और उनके आवासों को नष्ट किया;
(v) रजवाड़ों तथा सम्भ्रांत वर्ग ने शिकार को क्रीड़ा बनाया और एक ही बार में सैकड़ों वन्य जीवों को शिकार बनाया। व्यापारिक महत्त्व के लिए अभी भी पशुओं को मारा जा रहा है;
(vi) जंगलों में आग लगने से भी वन और वन्य प्राणियों की प्रजातियाँ नष्ट हुई।
भारत में वन्य प्राणी संरक्षण
वन्य प्राणी अधिनियम, 1972 में पास हुआ, जो वन्य प्राणियों के संरक्षण और रक्षण की कानूनी रूपरेखा तैयार करता है। उस अधिनियम के दो मुख्य उद्देश्य हैं; अधिनियम के तहत अनुसूची में सूचीबद्ध संकटापन्न प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करना तथा नेशनल पार्क, पशु विहार जैसे संरक्षित क्षेत्रों को कानूनी सहायता प्रदान करना।
वन्य प्राणी अधिनियम, 1972 में पास हुआ, जो वन्य प्राणियों के संरक्षण और रक्षण की कानूनी रूपरेखा तैयार करता है। उस अधिनियम के दो मुख्य उद्देश्य हैं; अधिनियम के तहत अनुसूची में सूचीबद्ध संकटापन्न प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करना तथा नेशनल पार्क, पशु विहार जैसे संरक्षित क्षेत्रों को कानूनी सहायता प्रदान करना। 1991 में पूर्णतया संशोधित कर दिया गया जिसके तहत कठोर सजा का प्रावधान किया गया है। देश में 103 नेशनल पार्क और 535 वन्य प्राणी अभयवन हैं।
यूनेस्को के ‘मानव और जीवमंडल योजना’ (Man and Biosphere Programme) के तहत भारत सरकार ने वनस्पति जात और प्राणि जात के संरक्षण के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। प्रोजेक्ट टाईगर (1973) और प्रोजेक्ट एलीफेंट (1992) जैसी विशेष योजनाएँ इन जातियों के संरक्षण और उनके आवास के बचाव के लिए चलायी जा रही हैं।
अब यह योजना 44 क्रोड बाघ निचयों में चल रही है और इनका क्षेत्रफल 36.988.28 वर्ग किलोमीटर है और 17 राज्यों में व्याप्त है। देश में बाघों की संख्या 2006 में 1,411 से बढ़कर 2010 में 1.706 हो गई।
जीव मंडल निचय
भारत में 18 जीव मंडल निचय हैं ( परियोजना 5.1)। इनमें से 10 जीव मंडल निचय । यूनेस्को द्वारा जीव मंडल निचय विश्व नेटवर्क पर मान्यता प्राप्त हैं।
नीलगिरी जीव मंडल निचय
स्थापना 1986 में हुई थी और यह भारत का पहला जीव मंडल निचय है। इस निचय में वायनाड वन्य जीवन सुरक्षित क्षेत्र, नगरहोल बांदीपुर और मदुमलाई. निलंबूर का सारा वन से ढका ढाल, ऊपरी नीलगिरी पठार, सायलेंट वैली और सिदुवानी पहाड़ियाँ शामिल हैं। इस जीव मंडल निचय का कुल क्षेत्र 5.520 वर्ग किलोमीटर है।
नंदा देवी जीव मंडल निचय
नंदा देवी जीव मंडल निचय उत्तराखंड में स्थित है, जिसमें चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों के भाग शामिल हैं।
यहाँ पर मुख्यतः शीतोष्ण कटिबंधीय वन पाए जाते हैं। यहाँ पाई जाने वाली प्रजातियों में सिल्वर वुड तथा लैटीफोली जैसे ओरचिड और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं। उस जीव मंडल निचय में कई प्रकार के वन्य जीव जैसे- हिम तेंदुआ (Snow leopard), काला भालू, भूरा भालू कस्तूरी मृग, हिम- मुर्गा, सुनहरा बाज और काला बाज पाए जाते हैं।
सुंदर वन जीव मंडल निचय
पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के दलदली डेल्टा पर स्थित है। यह एक विशाल क्षेत्र (9,630 वर्ग किलोमीटर) पर फैला हुआ है सुंदर बन लगभग 200 रॉयल बंगाल टाईगर का आवासीय क्षेत्र है। इन वनों में 170 से ज्यादा पक्षी प्रजातियाँ पाई जाती है।
मन्नार की खाड़ी का जीवमंडल निचय
मवार की खाड़ी का जीवमंडलनिय लगभग एक लाख पाँच हजार हैक्टेयर क्षेत्र में फैला है
इस जीवमंडल निचय में 21 द्वीप है और इन पर अनेक ज्वारनदमुख, पुलिन तटीय पर्यावरण के जंगल समुद्री पासे, प्रवाल द्वीप, लवीय अनूप और मैो पाए जाते हैं। यहाँ पर लगभग 3.600 पौधों और जीवों की संकटापन्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जैसे समुद्रा (Dugong dugon)