न्यायपालिका न्यायपालिका के कार्य न्यायपालिका के प्रकार न्यायपालिका की स्वतंत्रता न्यायपालिका की संरचना सर्वोच्च न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार न्यायिक सक्रियता पीआईएल जनहित याचिकाओं की शुरुआत न्यायपालिका और संसद में टकराव
◆ न्यायपालिका की क्या भूमिका है?
न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है। भारतीय संविधान किसी भी तरह का दखलंदाजी को स्वीकार नही करता इसलिए हमारे संविधान ने न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतंत्र रखा गया है।
● विवादों का निपटारा :- केंद्र व राज्य सरकारों के बीच पैदा होने वाले विवादों को हल करती है।
● बुनियादी पहलू :- अदालतें सरकार के अधीन नहीं हैं। न ही वे सरकार की ओर से काम करती हैं।
● न्यायिक समीक्षा :- संविधान की व्याख्या का अधिकार मुख्य रुप से न्यायपालिका के पास ही होता है।
● शक्तियों का बँटवारा :- विधायिका और कार्यपालिक न्यायपालिका के काम में दखल नही दे सकती ।
● मौलिक अधिकारों की रक्षा :- न्यायपालिका देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा में अहम भूमिका निभाती है।
● कानून की रक्षा:- किसी नागरिक को ऐसा लगता है कि उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ तो वह न्यायालय में जा सकता है।
★ न्यायपालिका की संरचना :-
◆ सर्वोच्च न्यायालय ( The Supreme Court ) :-
● भारतीय संविधान के भाग-5 में अनुच्छेद 124 से 147 तक सर्वोच्च न्यायालय के गठन , स्वतंत्र , न्यायक्षेत्र , शक्तियाँ प्रक्रिया आदि का उल्लेख है।
● भारत में सुप्रीम कोर्ट के गठन से सम्बंधित कानून बनाने की शक्ति संसद को प्राप्त है।
● भारत का सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना 26 जनवरी 1950 को की गई।
◆ गठन :-
● अगस्त , 2019 में संसद ने विधि द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या 34 कर दी हैं, ( जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और 33 अन्य न्यायाधीश ) हैं।
◆ नियुक्ति ( Appointment ) :-
● सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
● राष्ट्रपति अन्य न्यायधीशों एवं उच्च न्यायालय के न्यायधीशों की सलाह के बाद करता है।
◆ कार्यकाल ( Term of Office of Justice ):-
● संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु पूरी करने तक अपने पद पर बना रह सकता है।
◆ योग्यताएँ ( Qualifications) :- संविधान के अनुच्छेद 124 (3) के अनुसार , सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की योग्यताएँ :-
● वह भारत का नागरिक हो
● 10 वर्ष तक लगातार किसी एक या इससे अधिक उच्च न्यायालय में वकालत की हो।
● पाँच वर्ष तक किसी एक या इससे अधिक उच्च न्यायालयों का न्यायाधीश रह चुका हो।
◆ पद से हटाना (Removal of judges ):-
● सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों को पद से हटाने की प्रक्रिया :-
● महाभियोग द्वारा
●अयोग्यता का आरोप लगने पर
● विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित
● दोनो सदनों में बहुमत के बाद
◆ शपथ ग्रहण (Oath or Affirmation ) :-
● अनुच्छेद 124 (6) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को राष्ट्रपति शपथ दिलाता है।
◆ वेतन तथा भते ( Salaries and Allowance ) :-
● अनुच्छेद 125 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों वेतन संसद विधि द्वारा निर्धारित किया गया है।
● 2017 से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का वेतन 2,80,00 दिया जाता हैं।
◆ उच्च न्यायालय ( High Court ):-
● राज्य को न्यायपालिका में राज्य के उच्च न्यायालय व अधीनस्थ न्यायालय सम्मिलित होते हैं।
● संविधान के भाग-4 , अनुच्छेद 214 से 231 तक उच्च न्यायालय से संबंधित प्रावधान है।
● संविधान के अनुच्छेद 214 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा।
● वर्तमान में देश भर में 25 उच्च न्यायालय हैं।
● उच्च न्यायालयों की स्थापना सबसे पहले 1862 में कलकत्ता , बंबई और मद्रास में की गई ये तीनों प्रेसिडेंसी शहर थे।
◆ उच्च न्यायालय का गठन :-
● संविधान के अनुच्छेद 216 के अनुसार प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश होते है।
◆ न्यायाधीशों की नियुक्ति ( Appointment of the Judges ):-
● अनुच्छेद 217 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
◆ न्यायाधीशों की योग्यताएँ (Qualification of the Judges ):-
● संविधान के अनुच्छेद 217(2) के अनुसार योग्यताएँ
● वह भारत का नागरिक हो।
● भारत में कम से कम 10 वर्ष तक किसी न्यायिक पद पर आसीन रहा हो।
● किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय में या एक से अधिक राज्य के उच्च न्यायालयों में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो।
◆ कार्यकाल (Term of Office of Justice ) :-
● संविधान के अनुच्छेद 217 (1) के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर आसीन रह सकते हैं।
◆ पद से हटाना ( Removal of Judges) :-
● उच्च न्यायालय के न्यायधीशों को पद से हटाने की प्रक्रिया :-
● महाभियोग द्वारा
● अयोग्यता का आरोप लगने पर
● विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित
● दोनो सदनों में बहुमत के बाद
◆ शपथ ( Oath ) :-
● संविधान के अनुच्छेद 219 के अनुसार , उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को शपथ राज्यपाल दिलाता है।
◆ वेतन तथा भत्ते ( Salaries and Allowances ) :-
● अनुच्छेद 221 के अनुसार उच्च न्यायालय न्यायाधीशों के वेतन संसद विधि दद्वारा निर्धारित किया जाता है।
◆ अधीनस्थ न्यायालय ( Subordinate Courts ) :-
● संविधान के भाग-6 के अनुच्छेद 223 से 237 तक में अधीनस्थ न्यायालयों से संबंधित उपबंधों का उल्लेख हैं।
● ये उच्च न्यायालय के अधीन एवं उसके निर्देशसानुसार जिला और निम्न स्तरों पर कार्य करते हैं।
● प्रत्येक राज्य जिलों में बँटा हुआ है और प्रत्येक जिले में एक जिला अदालत होती हैं।
● क्या हर व्यक्ति अदालत की शरण में जा सकता हैं ?
◆ निचली अदालतों :-
◆ दीवानी कानून :- जिला न्यायाधीश दीवानी मामलों की सुनवाई करता है।
1.सिविल लॉ का उल्लंघन या अवहेलना करना।
उदाहरण :- किराया, तलाक, जमीन की बिक्री, चीजों की खरीदारी विवाद आदि
2. प्रभावित पक्ष को ओर से न्यायालय में एक याचिका दायर की जाती है।
3. अदालत राहत की व्यवस्था करती है। किरायेदार मकान खाली कर और बकाया किराया चुकाए ।
◆ फ़ौजदारी कानून :-सत्र न्यायाधीश फौजदारी मामलों की सुनवाई करता है।
1. आपराधिक मामले जिसमें कानून का उल्लंघन माना गया है।
उदाहरण :- चोरी, हत्या, दहेज, आदि
2. सबसे पहले प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ. आई. आर.) दर्ज कराई जाती है। फिर पुलिस अपराध की जाँच करती है।
3. अगर अगर व्यक्ति दोषी पाया जाता है तो उसे जेल भेजा जा सकता है और उस पर जुर्माना भी किया जा सकता है।
★ भारत सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्रधिकार :-
1. मौलिक क्षेत्राधिकार :-
● मौलिक क्षेत्राधिकार का अर्थ है कि कुछ मुकदमों की सुनवाई सीधे सर्वोच्च न्यायालय कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का मौलिक क्षेत्राधिकार उसे संघीय मामलों से संबंधित सभी विवादों में एक अंपायर या निर्णायक की भूमिका देता है।
● अपने इस अधिकार का प्रयोग कर सर्वोच्च न्यायालय न केवल विवादों को सुलझाता है बल्कि संविधान में दी गई संघ और राज्य सरकारों की शक्तियों की व्याख्या भी करता है।
2. अपीली क्षेत्राधिकार :-
● सर्वोच्च न्यायालय अपील का उच्चतम न्यायालय है। कोई भी व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। लेकिन उच्च न्यायालय को यह प्रमाणपत्र देना पड़ता है कि वह मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने लायक है अर्थात् उसमें संविधान या कानून की व्याख्या करने जैसा कोई गंभीर मामला उलझा है।
● अगर फौजदारी के मामले में निचली अदालत किसी को फाँसी की सज्ञा दे दे, तो उसकी अपील सर्वोच्य या उच्च न्यायालय में की जा सकती है। यदि किसी मुकदमे में उच्च न्यायालय अपील की आज्ञा न दे तब भी सर्वोच्च न्यायालय के पास यह शक्ति है कि वह उस मुकदमे में की गई अपील को स्वीकार कर ले।
3. ‘रिट’ संबंधी क्षेत्राधिकार :-
● मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर कोई भी व्यक्ति इंसाफ पाने के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय अपने विशेष आदेश रिट के रूप में दे सकता है। उच्च न्यायालय भी रिट जारी कर सकते हैं।
● जिस व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है उसके पास विकल्प है कि वह चाहे तो उच्च न्यायालय या सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है। इन रिटों के माध्यम से न्यायालय कार्यपालिका को कुछ करने या न करने का आदेश दे सकता है।
4. सलाह संबंधी क्षेत्राधिकार :
● मौलिक और अपीली क्षेत्राधिकार के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श संबंधी क्षेत्राधिकार भी है। इसके अनुसार, भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से संबंधित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है।
● लेकिन न सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने को।फिर सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श देने की शक्ति की क्या उपयोगिता है? इसको दो मुख्य उपयोगिताएँ हैं
● पहली इससे सरकार की छूट मिल जाती है कि किसी महत्त्वपूर्ण मसले पर कार्रवाई करने से पहले वह अदालत की कानूनी राय जान ले इससे बाद में कानूनी विवाद से बचा जा सकता है। दूसरी सर्वोच्य न्यायालय की सलाह मानकर सरकार अपने प्रस्तावित निर्णय या विधेयक में समुचित संशोधन कर सकती है।
5. न्यायिक समीक्षा की शक्ति :-
● संविधान का अनुच्छेद 137 उच्चतम न्यायालय को अपने द्वारा सुनाए गए निर्णय या दिए गए आदेशों के पुनर्विलोकन या पुनर्विचार (समीक्षा) की शक्ति प्रदान करता है। परन्तु उच्चतम न्यायालय की यह शक्ति संसद द्वारा निर्मित किसी विधि तक ही है।
● उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग विभिन्न मामलों में किया है, जैसे गोलकनाथ मामला 1967, केशवानन्द भारती मामला 1973 तथा मिनर्वा मिल्स आदि।
◆ न्यायिक पुनरावलोकन :- न्यायालय द्वारा कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के कार्यों की वैधता की जाँच करना।
(i) अनुच्छेद 13 (1) में यह प्रावधान किया गया है कि यदि कानून द्वारा राज्य मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है तो उस कानून को अवैध घोषित किया जा सकता है।
(ii) अनुच्छेद 32 द्वारा अपने मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर कोई भी नागरिक संवैधानिक उपचार प्राप्त करने के लिए उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है।
(iii) अनुच्छेद 132 के अनुसार जहाँ संविधान की व्याख्या का प्रश्न निहित है, उच्चतम न्यायालय का निर्णय अंतिम होगा ।
(iv) अनुच्छेद 246 के अन्तर्गत संघ और राज्यों की विधायी सीमा का उल्लेख किया गया है अर्थात् संघ अथवा राज्यों द्वारा अपने क्षेत्राधिकार को तोड़ने पर उच्चतम न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है।
(v) अनुच्छेद 368 के अनुसार संविधान में संशोधन यदि निर्धारित विधान की प्रक्रिया के अनुसार नहीं होता है तो न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है।
◆ जनहित याचिका :- 1980 के दशक में सर्वोच्च न्यायालय ने जनहित याचिका पी.आई.एल. की व्यवस्था विकसित की थी
● न्यायालय किसी भी व्यक्ति या संस्था को ऐसे लोगों को ओर से जनहित याचिका दायर करने का अधिकार दिया है जिनके अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।
● सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय तक ज्यादा से ज्यादा लोगो की पहुँच स्थापित करने के लिए प्रयास किया है।
1. बंधुआ मजदूरी से मुक्ति
2. मिड-डे मील की शुरुआत
3. गरीबों के लिए आवास
◆ न्यायिक सक्रियता :-
● भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका रही है।
● जब पीड़ितों की ओर से कोई अन्य व्यक्ति न्यायालय में याचिका दायर कर न्याय दिलाने की माँग करता है तो उसे जनहित याचिका के नाम से जाना जाता है। यह लोगों के अधिकारों की रक्षा, पर्यावरण सुरक्षा, लोकहित, गरीबों के हित आदि से सम्बन्धित हो सकती है।
● न्यायिक सक्रियता ने न्याय व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाया है तथा कार्यपालिका भी न्यायिक सक्रियता के कारण उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई है।
◆ न्यायपालिका और अधिकार :-
● सर्वोच्च न्यायालय को नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षक तथा संविधान के अनुसार कानूनों की व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त है। वह किसी भी कानून को असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है।
● रिट जारी करने एवं न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को अत्यन्त शक्तिशाली बना देती है।
● न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का आशय यह है कि न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों और संविधान की व्याख्या कर सकती है।
◆ न्यायपालिका और संसद
● भारतीय संविधान के अनुसार सरकार के प्रत्येक अंग का एक स्पष्ट कार्य क्षेत्र है।
● संसद कानून बनाने और संविधान में संशोधन करने के लिए सर्वोच्च है। कार्यपालिका उन्हें लागू करने के लिए सर्वोच्च है तथा न्यायपालिका विवादों को सुलझाने तथा बनाये गये कानून संविधान के अनुकूल हैं या नहीं यह निर्णय करने के लिए सर्वोच्च है।
● सरकार के किन्हीं दो अंगों के मध्य संतुलन बनाये रखना अतिआवश्यक तथा संवेदनशील होता है।
● केशवानन्द भारती के मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद सहित कोई भी उस ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकता है। न्यायालय ने आगे कहा कि इस मूल ढाँचे के अन्तर्गत क्या-क्या आता है। इसका निर्णय न्यायालय द्वारा ही किया जाएगा।
● एक अन्य बात न्यायालय ने कही कि सम्पत्ति का अधिकार संविधान के मूल ढाँचे का भाग नहीं है। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने सन् 1979 में सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से ही हटा दिया।
● आज भी कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो अनसुलझे ही हैं, जैसे-विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी पाये जाने पर कोई व्यक्ति न्यायपालिका की शरण ले सकता है या नहीं, न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में चर्चा हो सकती है या नहीं।
अध्याय 7 : संघवाद / Federlism