अध्याय : 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट / The Crisis of Democratic Order

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लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट राष्ट्रीय आपातकाल आपातकाल की घोषणा आपातकाल के प्रमुख कारक आर्थिक कारक छात्र आंदोलन रेल हड़ताल न्यायपालिका के संघर्ष आपातकाल के परिणाम आपातकाल के सबक लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान नागरिक स्वतंत्रता संगठनों का उदय \जय प्रकाश नारायण तथा समग्र क्रांति राम मनोहर लोहिया तथा लोकतांत्रिक समाजवाद दीन दयाल उपाध्याय तथा एकात्म मानवावाद

 

 

लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट :-

 ● इस अध्याय में…

● 1973 से 1975 के बीच घटी घटनाओं ने भारत की लोकतांत्रिक राजनीति और संविधान निर्देशित सांस्थानिक संतुलन को नयी चुनौतियों ने घेरा ।

● 1973 से 1975 के बीच आए बदलावों की परिणति देश में ‘आपातकाल लागू करने के रूप में हुई। 1975 के जून माह में देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई।

● लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट छात्र आंदोलन रेल हड़ताल आपतकाल की घोषणा जय प्रकाश नारायण सम्रग क्रांति राम मनोहर लोहिया समाजवाद पंडित दीन दयाल उपाध्याय एकात्म मानववाद लोकतांत्रिक अभ्युत्थान -वयस्क पिछड़े और युवाओं की भागीदारी

 

 

★ राष्ट्रीय आपातकाल :- 25 जून 1975 से 18 माह तक अनुच्छेद 352 के प्रावधान आंतरिक अशांति के तहत भारत में आपातकाल लागू रहा। आपातकाल में देश की अखंडता व सुरक्षा का ध्यान में रखते हुए रखते हुए समस्त शक्तियाँ केंद्रीय सरकार को प्राप्त हो जाती है।

 

★ आपातकाल के प्रमुख कारक ;-

1.आर्थिक कारक :-

● गरीबी हटाओं का नारा कुछ खास नहीं कर पाया था।

●बांग्लादेश के संकट से भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ बड़ा था । अमेरिका ने भारत को हर तरह की सहायता देनी बंद कर दी थी।

●अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों के बढ़ने से विभिन्न चीजों की कीमतें बहुत बढ़ गई थी।

● औद्यौगिक विकास की दर बहुत कम हो गयी थी ।

● शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी बहुत बढ़ गई थी।

● सरकार ने खर्चे कम करने के लिए सरकारी कर्मचारियों का वेतन रोक दिया था।

 

 

2. छात्र आंदोलन :-

●गुजरात के छात्रों ने खाद्यान्न, खाद्य तेल तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती गुजरात हुई कीमतें तथा उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जनवरी 1974 में आंदोलन शुरू किया।

● मार्च 1974 में बढ़ती हुई कीमतों, खाद्यान्न के अभाव, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार में छात्रों ने आंदोलन शुरू कर दिया।

● जय प्रकाश नारायण (जेपी) ने इस आंदोलन का नेतृत्व दो शर्तों पर स्वीकार किया।

(क) आंदोलन अहिंसक रहेगा।

(ख) यह बिहार तक सीमित नहीं रहेगा, अपितु राष्ट्रव्यापी होगा।

● जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति द्वारा सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की बात की थी।

● जेपी ने भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी जैसे गैर-कांग्रेसी दलों के समर्थन से संसद मार्च’ का नेतृत्व किया था।

● इंदिरा गांधी ने इस आंदोलन को अपने प्रति व्यक्तिगत विरोध से प्रेरित बताया था।

 

 

3. रेल हड़ताल :-

● जार्ज फर्नाडिज़ के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय समिति रेलवे कर्मचारियों की सेवा तथा बोनस आदि से जुड़ी माँगो को लेकर 1974 में हड़ताल की थी।

● सरकार ने हड़ताल को असंवैधानिक घोषित किया और उनकी माँगे स्वीकार नहीं की।

● इससे मजदूरों, रेलवे कर्मचारियों, आम आदमी और व्यापारियों में सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा हुआ।

 

 

4. न्यायपालिका के संघर्ष :-

● सरकार के मौलिक अधिकारों में कटौती, संपत्ति के अधिकार में कांट-छांट और नीति-निर्देशक सिद्धांतो को मौलिक अधिकारों पर ज्यादा शक्ति देना जैसे प्रावधानों को सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया।

● सरकार ने जेःएम. शैलट, के. एस. हेगड़े तथा ए. एन. ग्रोवर की वरिष्ठता की अनदेखी करके ए.एन.रे. को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया।

● सरकार के इन कार्यों से प्रतिबद्ध न्यायपालिका तथा नौकरशाही की बातें होने लगी थी।

 

 

★ आपातकाल की घोषणा :-

● 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा चुनाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया।

● 24 जून 1975 को सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले स्थगनादेश सुनाते हुए, कहा कि अपील का निर्णय आने तक इंदिरा गांधी सांसद बनी रहेगी परन्तु मंत्रिमंडल की बैठकों में भाग नहीं लेगी।

● 25 जून 1975 को जेपी के नेतृत्व में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा की। इंदिरा गांधी के इस्तीफे की माँग की।

● जेपी ने सेना, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों से आग्रह किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें।

● 25 जून 1975 की मध्यरात्रि में प्रधानमंत्री ने अनुच्छेद 352 (आंतरिक गड़बड़ी होने पर) के तहत राष्ट्रपति से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की।

● परिणामस्वरूप तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने 25 जून, 197 की मध्यरात्रि को आपातकाल की उद्घोषणा की।

 

 

 

★ आपातकाल के परिणाम :-

● विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया।

● प्रेस सेंसरशिप लागू कर लागू कर दी गयी।

● राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध।

● धरना, प्रदर्शन और हड़ताल पर रोक ।

● नागरिकों के मौलिक अधिकार निष्प्रभावी कर दिये गये।

● सरकार ने निवारक नजरबंदी कानून के द्वारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया।

● इंडियन एक्प्रेस और स्टेट्स मैन अखबारों को जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था, वे उनकी खाली जगह में छोड़ देते थे।

● ‘सेमिनार’ और ‘मेनस्ट्रीम’ जैसी पत्रिकाओं ने प्रकाशन बंद कर दिया था।

● कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत तथा हिन्दी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने आपातकाल के विरोध में अपनी पदवी सरकार को लौटा दी।

● 42 वें संविधान संशोधन (1976) द्वारा अनेक परिवर्तन किए गये जैसे प्रधानमंत्री, राष्टपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती न दे पाना तथा विधायिका के कार्यकाल को 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर देना आदि ।

 

 

 

★ आपातकाल के दौरान किए गए कार्य :-

● बीस सूत्री कार्यक्रम में भूमि सुधार, भू-पुनर्वितरण, खेतिहर मजदूरों के पारिश्रमिक पर पुनः विचार, प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति आदि जनता की भलाई के कार्य शामिल थे।

● विरोधियों को निवारक नज़रबंदी कानून के तहत बंदी बनाया गया।

● मौखिक आदेश से अखबारों के दफ़तरों की बिजली काट दी गई।

● दिल्ली में झुग्गी बस्तियों को हटाने तथा जबरन नसबंदी जैसे कार्य किये गये। —

 

 

◆ आपातकाल के सबक :-

1. आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतंत्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हो गई थी, लेकिन जल्द ही कामकाज लोकतंत्र की राह पर लौट आया। इस प्रकार भारत से लोकतंत्र को विदा कर पाना बहुत कठिन है।

2. आपातकाल समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई है तथा इन अधिकारों की रक्षा के लिए कई संगठन अस्तित्व में आये है।

3. संविधान के आपातकाल के प्रावधान में ‘आंतरिक अशान्ति’ शब्द के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द को जोड़ा गया है। इसके साथ ही आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित में देगी।

4. आपातकाल में शासक दल ने पुलिस तथा प्रशासन को अपना राजनीतिक औजार बनाकर इस्तेमाल किया था। ये संस्थाएं स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर पाई थी।

 

 

★ आपातकाल के बाद की राजनीति :-

● जनवरी 1977 में विपक्षी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया।

● कांग्रेसी नेता बाबू जगजीवन राम ने “कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी दल का गठन किया, जो बाद में जनता पार्टी में शामिल हो गया।

● 1977 के चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा में 154 सीटें तथा जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को 330 सीटे मिली।

● आपातकाल का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक होने के कारण 1977 के चुनाव में कांग्रेस को उत्तर भारत में ना के बराबर सीटें प्राप्त हुई।

● जनता पार्टी की सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री तथा चरण सिंह व जगजीवनराम दो उपप्रधानमंत्री बने।

● जनता पार्टी के पास किसी दिशा, नेतृत्व व एक साझे कार्यक्रम के अभाव में यह सरकार जल्दी ही गिर गई।

● 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 353 सीटें हासिल करके विरोधियों को करारी शिकस्त दी।

 

 

★ नागरिक स्वतंत्रता संगठनों का उदय :-

● नागरिक स्वतंत्रता एवं लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्टूबर, 1976 में हुआ।

● इन संगठनों ने न केवल आपातकाल बल्कि सामान्य परिस्थितियों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा है।

● 1980 में नागरिक स्वतंत्रता एवं लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए लोगों का संघ’ रख दिया गया।

● गरीबी सहभगिता , लोकतंत्रीकरण तथा निष्पक्षता से सम्बंधित चिंताओं के सन्दर्भ में भारतीय नागरिक स्वतंत्रता संगठनों ने अनेक क्षेत्रों में संगठित होकर कार्य करना प्रारंभ कर दिया है।

 

 

 ★ लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान’ :- देश की लोकतान्त्रिक राजनीति में जनता की बढ़ती सहभागिता को लोकतान्त्रिक के रूप में इंगित किया जाता है।

◆ इस सिद्धांत के आधार पर, समाज विज्ञानी के स्वातंत्र्योत्तर इतिहास में तीन लोकतान्त्रिक अभ्युत्थानों का वर्णन करते हैं।

1. प्रथम लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान 1950  दशक से 1970 के दशक तक चिन्हित किया जा सकता है जो केन्द्र व राज्य दोनों की लोकतान्त्रिक राजनीति में भारतीय वयस्क मतदाताओं की बढ़ती सहभागिता पर आधारित था। पश्चिम के इस मिथक को मिथ्या सिद्ध करते हुए कि एक सफल लोकतन्त्र आधुनिकीकरण, नगरीकरण, शिक्षा तथा मीडिया पहुँच पर आधरित होता है, संसदीय लोकतंत्र के सिद्धान्त पर लोकसभा तथा राज्यों की विधनसभाओं में चुनावों के सफल आयोजन ने भारत के प्रथम लोकतांत्रिक अभ्युत्थान को सार्थक किया।

2. द्वितीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान’ 1980 के दशक में समाज के निम्न वर्गों यथा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग की बढ़ती राजनीतिक सहभागिता को ‘द्वितीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान’ के रूप में व्याख्यायित किया गया है। इस सहभागिता ने भारतीय राजनीति को इन वर्गों के लिए अधिक अनुग्राही तथा सुगम बना दिया है। यद्यपि इस अभ्युत्थान ने इन वर्गों, विशेषतः दलितों के जीवन स्तर में कोई व्यापक परिवर्तन नहीं किया है, परन्तु संगठनात्मक तथा राजनीतिक मंचों पर इन वर्गों की सहभागिता ने इनके स्वाभिमान को सुदृढ़ तथा देश की लोकतान्त्रिक राजनीति में इन वर्गों के सशक्तिकरण को सुनिश्चित करने का अवसर प्रदान किया है।

3.तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान 1990 के दशक के प्रारम्भ से उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण के युग (LPG – Liberalization, Privatization, Globalization) को एक प्रतिस्पर्धक बाजार समाज के उद्भव के लिए उत्तरदायी माना जाता है, जिसमें अर्थव्यवस्था, समाज और राजनीति के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है। उदारीकरण का यह दशक ‘तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान’ के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।

 

तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान एक प्रतिस्पर्दी चुनाव राजनीति का प्रतिनिधित्व करता है जो ‘श्रेष्ठतम की उत्तरजीविता’ (Survival of the Fittest) के सिद्धान्त पर आधरित ना होकर ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ (Survival of the Ablest) पर आकारित होता है। यह भारतीय चुनावी बाजार में तीन परिवर्तनों को रेखांकित करता है: राज्य से बाजार की ओर, सरकार से शासन की ओर तथा नियंत्रक राज्य से सुविधप्रदाता राज्य की ओर। इसके अतिरिक्त

तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान ने उस युवा वर्ग की सहभागिता को इंगित किया है जो भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण भाग हैं तथा भारत की समकालीन लोकतान्त्रिक राजनीति में अपनी बढ़ती चुनावी प्राथमिकता की दृष्टि से विकास तथा प्रशासन दोनों के लिए वास्तविक परिवर्तन के रूप में उदित हुआ है।

 

 

 

 

★ जय प्रकाश नारायण तथा समग्र क्रांति :-

◆ जय प्रकाश नारायण अपने तीन प्रमुख योगदानों के लिए जाने जाते हैं –

● भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष, सामुदायिक समाजवाद का सिद्धांत तथा ‘समग्र क्रांति’ प्रवर्तक।

1. स्वातंत्रयोत्तर भारत में जय प्रकाश नारायण ऐसे प्रथम नेता थे जिन्होंने मुख्यतः गुजरात और बिहार में युवा सहभागिता द्वारा भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक वृहत अभियान आरंभ किया।
उन्होंने भ्रष्टाचार के विरूद्ध लोकपाल संस्था के पक्ष से समर्थन किया।

2. सामुदायिक समाजवाद का उनका सिद्धांत समुदाय, क्षेत्र एवं राष्ट्र के त्रि-स्तरीय रूप में एक यथार्थ संघ का उदाहरण उदृत करते हुए भारत को समुदायों के एक समाज के रूप में दृष्टिगत करता है।

4. उपरोक्त सिद्धांतों पर आधरित अपने ‘समग्र आंदोलन’ के माध्यम से जय प्रकाश नारायण व्यक्ति, समाज तथा राज्य के रूपांतरण का प्रतिपादन करते हैं।

5. समग्र क्रांति के लिए उनका आह्वान नैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा पारिस्थितिकीय रूपांतरण के समावेशन की पहल है।

6. उनका राजनीतिक रूपांतरण लोकतांत्रिक राजनीति में प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने के अधिकार, ग्राम्य / मौहल्ला समितियों के महत्व तथा देश की स्वच्छ राजनीति में ऊपर के लोगों / विशिष्ट वर्गों को राजनीतिक संघर्ष में सम्मिलित होने का आह्वान है।

7. जय प्रकाश नारायण के अनुसार इस रूपांतरण का मूल तत्व ‘व्यक्ति’ है जो भारत में परिवर्तन का प्रमुख द्योतक है।

 

 

★ राम मनोहर लोहिया तथा लोकतांत्रिक समाजवाद :-

1. राम मनोहर लोहिया भारत में समाजवाद के प्रमुख प्रतिपादकों में से एक प्रतिपादक रहे हैं। समाजवाद को लोकतंत्र से सम्बद्ध करते हुए उन्होंने ‘लोकतांत्रिक समाजवाद के विचार का प्रतिपादन किया।

2. लोहिया भारतीय समाज में पूंजीवाद तथा साम्यवाद दोनों को ही समान रूप से अप्रसांगिक मानते थे। उनके लोकतांत्रिक समाजवाद के दो सिद्धांत थे भोजन एवं शरण के रूप में आर्थिक उद्देश्य तथा लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता के रूप में गैर-आर्थिक उद्देश्य ।

3.लोहिया ने चौबुर्ज राजनीति का प्रतिपादन किया जिसमें उन्होंने राजनीति तथा समाजवाद के चार स्तम्भों का वर्णन किया जो परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं।

ये चार स्तम्भ हैं। केन्द्र, क्षेत्र, जिला एवं ग्राम्य

4.सकारात्मक कार्यवाही को प्रधानता देते हुए लोहिया का मत है कि यह सिद्धांत न केवल अशक्त लोगों के लिए होना चाहिए अपितु महिलाओं और गैर-धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी इसका लाभ मिलना चाहिए।

5. लोकतांत्रिक समाजवाद तथा चौबुर्ज राजनीति के सिद्धांतों पर आधारित लोहिया ‘समाजवादी दल’ (Party of Socialism) का पक्ष समर्थन करते हैं जो सभी दलों के विलय का एक प्रयास है।

6.लोहिया के अनुसार समाजवाद दल तीन प्रतीकों पर आ – कुदाल ( प्रयास का प्रतीक), मत ( मताधिकार का प्रतीक), बंधनग्रह (समपर्ण का प्रतीक) ।

 

 

 ★ ‘दीन दयाल उपाध्याय तथा एकात्म मानवावाद’ :-

1. पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक दार्शनिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री तथा राजनीतिज्ञ थे।

2. उनके दर्शन को ‘एकात्म मानववाद’ कहा जाता हैं जो एक ‘स्वदेशीय सामाजिक-आर्थिक प्रतिमान’ का प्रतिपादन है जहाँ मानव विकास का केन्द्र होता है।

3. व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकताओं के मध्य समन्वय स्थापित करते हुए प्रत्येक मानव के लिए एक गरिमामयी जीवन सुनिश्चित करना एकात्म मानववाद का उद्देश्य है।

4. एकात्म मानववाद प्राकृतिक संसाधनों के समपोषित उपभोग का समर्थन करता है जिससे इन संसाधनों की पुर्नः पूर्ति हो सके।

5. यह न केवल राजनीतिक अपितु आर्थिक तथा सामाजिक लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता को भी बढाता है। चूंकि यह सिद्धांत विविधता का संवर्धन करता है, भारत जैसे विविध राष्ट्र के लिए यह श्रेष्ठकर है।

 

◆ एकात्म मानववाद का दर्शन निम्न तीन सिद्धांतों पर आधरित है:

1. समग्रता की प्रधानता

2. धर्म की सर्वोच्चता

3. समाज की स्वायतता

● पंडित दीनदयाल उपाध्याय पश्चिमी ‘पूंजीवादी व्यक्तिवाद’ तथा ‘मार्क्सवादी समाजवाद’ दोनों के विरोधी थे।

● उनके अनुसार पूंजीवादी तथा समाजवादी विचारधराएँ केवल मानव शरीर और मस्तिष्क की आवश्यकताओं पर ही बल देती हैं, अतः ये भौतिकवादी उद्देश्य पर आधरित हैं जबकि मानव के विकास के लिए आध्यात्मिक विकास भी उतना ही आवश्यक है जो पूंजीवाद और समाजवाद दोनों में अनुपस्थित है।

● आंतरिक चेतना, पवित्र मानवीय आत्मा पर आधरित अपने दर्शन जिसे चित्त कहते हैं,

● दीनदयाल उपाध्याय एक वर्गविहीन, जातिविहीन तथा संघर्षमुक्त सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना करते हैं।

 

 

●  सम्पूर्ण क्रान्ति :- सम्पूर्ण क्रांति जयप्रकाश नारायण का विचार व नारा था जिसका आह्वान उन्होंने इंदिरा गाँधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए किया था। पटना के ऐतिहासिक गाँधी मैदान में जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया था।

● प्रेस सेंसरशिप :-आपातकालीन प्रावधानों के अन्तर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना आवश्यक है। इसे प्रेस सेंसरशिप के नाम से जाना जाता है।

● निवारक नजरबंदी :-आपातकाल के दौरान सरकार ने निवारक नजरबंदी का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अन्तर्गत लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान के अन्तर्गत लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराधं कर सकते हैं।

 ● बंदी प्रत्यक्षीकरण :- व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए यह लेख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बंदी बनाया गया है। इस प्रकार अनुचित एवं गैर-कानूनी रूप से बंदी बनाए गए व्यक्ति बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख के आधार पर स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं। दोनों पक्षों की बात सुनकर न्यायालय इस बात पर निर्णय करता है कि नजरबंदी वैध है या अवैध।

● 42वाँ संविधान संशोधन :- आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वाँ संशोधन पारित हुआ। इस संशोधन के जरिए संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए। 42वें संशोधन के जरिए हुए अनेक बदलावों में से एक था देश की विधायिका के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 साल करना। यह व्यवस्था मात्र आपातकाल की अवधि भर के लिए नहीं की गयी थी। इसे आगे के दिनों में भी स्थायी रूप से लागू किया जाना था।

● शाह जाँच आयोग :- मई 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री जे.सी.शाह की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। इस आयोग का गठन ’25 जून 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की गयी कार्यवाही तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विभिन्न आरोपों के विविध पहलुओं’ की जाँच के लिए किया गया था।

 

 

 

 

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